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आज फिर जीने की तमन्ना है...?

राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘3 इडियट्स’ में आईआईटी का डीन अनुशासन प्रिय व्यक्ति है और उसे यह भरम है कि कुछ नया करना परीक्षा में अच्छे अंक लाने से अधिक जरूरी नहीं है। नायक को इससे शिकायत है। वह और उसके दो मित्र आपसी बातचीत में डीन को वायरस कहकर संबोधित करते हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा में ‘वायरस’ शब्द का प्रयोग पहली बार हुआ। कोरोना वायरस ने हमें जीवन को देखने का नया नजरिया दिया है। अब हम सोचने लगे हैं कि जीवन का प्रायोजन क्या है, हमारे अपने अस्तित्व का क्या अर्थ है। यह दार्शनिकता हमारा स्वत: स्फूर्त विचार नहीं है वरन् हमारी मजबूरी है। कंप्यूटर में भी वायरस लग जाता है और कंप्यूटर को वायरस मुक्त करने के कुछ तरीके हैं। खेलकूद के क्षेत्र में भी वायरस होता है। शिखर खिलाड़ी ऐसे दौर से गुजरता है कि वह अपना श्रेष्ठ नहीं दे पाता।

मेडिकल क्षेत्र में वायरस पर जागरूकता अंग्रेजी के कवि पी.बी.एस. शैली की मृत्यु के बाद हुई, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि कवि की मृत्यु किसी बीमारी के कारण हुई।

कवि होना ही बहुत जोखम भरी बात है। पी.बी.एस. शैली की कविताएं की कविता ‘ओज़ीमंडिआस’ का आशय यह है कि सृष्टि में सबसे बड़ा करता स्वयं मनुष्य है। यह विचार ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ नामक आदत से प्रेरित है। मनुष्य सृष्टि का केंद्र और कर्ता है। कीटाणुओं से लड़ा जा सकता है, क्योंकि वह दिखाई देते हैं। वायरस कमोबेश ‘मिस्टर इंडिया’ की तरह है। दिखाई नहीं देने वाले शत्रु से लड़ना अत्यंत कठिन है। शरीर की बीमारी से लड़ने की क्षमता घट जाती है। प्रदूषण और खाने पीने की चीजों में मिलावट ने हमें कमजोर बना दिया है। हमारी सामूहिक सोच में वायरस ने प्रवेश कर लिया है। विषाक्त राजनीतिक विचारधारा के कारण हम अंधे युग में पहुंच गए हैं। काणा अंधों में राजा होता है। उसके अंधत्व से अधिक भयावह है उसका बहरा होना। कोई कराह उसके कानों तक पहुंच नहीं पाती। उसके अवचेतन में स्पात समाया है। संकीर्णता कोई नई खोज नहीं है। हम सदियों से संकीर्णता ग्रस्त रहे हैं। यह तो कुछ महान नेताओं का करिश्मा था कि एक छोटे से कालखंड में हम संकीर्णता से मुक्त नजर आए। संकीर्णता हमारी जेनेटिक बीमारी रही है। वैचारिक खुलापन हमारी सामूहिक मृगतृष्णा रही है। रेगिस्तान में हरीतिमा का भरम हो जाता है। आज तो हरियाली भी संदिग्ध नजर आती है।

खाकसार की फिल्म ‘शायद’ का कैंसर ग्रस्त नायक अपना विश्वास खो चुका है। एक दृश्य में वह कैप्सूल खोलकर उसकी दवा फेंक देता है और कैप्सूल में एक नन्हा छर्रा डाल देता है। उसे अपनी हथेली पर रखता है। मांसपेशियों की हरकत से वह कैप्सूल हथेली पर नृत्य करता नजर आता है। क्या हथेली पर इस तरह का खेल भाग्य की जीवन रेखा को छोटा कर देता है। इच्छाशक्ति सबसे कारगर दवा है। साहित्य, संगीत इच्छा शक्ति का विकास करते हैं। अन्याय और असमानता आधारित समाज में जितना अधिक होता है। उतने ही वेग में प्रकाश किरण आने का विश्वास पैदा हो जाता है।

बकौल बिस्मिल के ‘देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है...जीने की तमन्ना हमारे दिल में है’। जीने की तरह ही मरने की कामना भी हमारे अवचेतन में कुलबुलाती रहती है। डेथ विश नामक फिल्म शृंखला भी बन चुकी है। एक फिल्म में प्रस्तुत किया गया की मृत्यु से मनुष्य प्रार्थना करता है कि उसे एक सप्ताह की मोहलत दे दे। कुछ अधूरे काम पूरे करने हैं। संभवत: उस दिन मृत्यु दया दिखाना चाहती थी। मृत्यु के मूडी होने के कारण व्यक्ति को एक सप्ताह की मोहलत मिल जाती है। वह व्यक्ति पूरे जोश से अपने अधूरे काम पूरे करने में लग जाता है। उसका उत्साह जोश और भलमनसाहत देखकर मृत्यु अपना विचार बदल देती है। लौटती हुई मृत्यु के पदचाप वह सुन लेता है और पुन: मौज मस्ती के मूड में आ जाता है। मनुष्य बदलते हुए नहीं, बदलने का भरम रचने में प्रवीण है और इसी तरह नहीं बदलते हुए बदलने का स्वांग भी रच लेता है।

ताजा खबर यह है कि इटली में एक दिन में 500 व्यक्ति कोरोना के शिकार हो गए। कल्पना कीजिए कि कब्रिस्तान में कितनी कमी हो गई होगी? क्या कब्रिस्तान के लिए अतिरिक्त भूमि का आवंटन होगा और कोरोना का कहर समाप्त होने पर यह आवंटित भूमि पर पांच सितारा होटल खोला जाएगा या सिनेमाघर बनाए जाएंगे। कल्पना करें कि सिनेमाघर में ऐसी फिल्म दिखाई जा रही है जो कभी बनाई नहीं गई। फिल्म का नाम ‘भूतनाथ’ हो सकता है।



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Today again I have desire to live...?


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अतिथि देवो भव: सीखने का सही समय!

म हाभारत में एक छोटा अध्याय है, जिसका नाम है, ‘आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अध्याय 92’। इसमें लिखा गया एक श्लोक कुछ इस तरह से है :

अभ्यागतं श्रान्तमनुव्रजन्ति देवाश्च सर्वे पितरोSग्नयश्च। तस्मिन् द्विजे पूजिते पूजिता: स्यु-र्गते निराशा: पितरो व्रजन्ति।।


अर्थात, जब थका हुआ अतिथि (अभ्यागत) घर पर आता है, तब उसके पीछे-पीछे समस्त देवता, पित्रदेव और अग्नि भी पदार्पण करते हैं। यदि उस अतिथि की पूजा हुई तो उसके साथ उन देवताओं आदि की भी पूजा हो जाती है और उसके निराश लौटने पर वे देवता, पितर आदि भी हताश होकर लौट जाते हैं। हालांकि यह, अश्वमेध यज्ञ के बाद भगवान श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को दिया गया धर्मोपदेश था।

मुझे यह श्लोक और प्रसंग मुम्बई में अपने एक मित्र के कारण याद आया। मेरा यह मित्र गुरुवार सुबह इसलिए बहुत चिड़चिड़ा रहा था क्योंकि एक दूर के रिश्तेदार ने सुबह 5 बजे उसके घर के दरवाजे पर दस्तक दी। वजह, रिश्तेदार के घर तक जाने वाली बस का बंद हो जाना थी क्योंकि कोरोना वायरस के कारण राज्य सरकार ने एहतियाती प्रतिबंध के कदम उठाए हैं। यह सुनने के बाद, जब मैंने अपने मित्र के सामने उसके रिश्तेदार का पक्ष यह कहते हुए लिया कि ‘वह बेचारा क्या करता, जबकि एक कॉफी शॉप से लेकर होटल तक सब कुछ बंद है, उनमें फ्यूमिगेशन चल रहा है और आने-जाने के लिए गाड़ियां भी नहीं मिल रही!’ मित्र ने कहा, ‘मैं परेशानी समझता हूं लेकिन, बिना फोन किए कोई ऐसे कैसे किसी दूसरे के घर पहुंच सकता है?’ मैंने तर्क देते हुए कहा ‘मान लो, अगर वो तुम्हें कहीं से फोन भी करता तो उस समय रात के 3:30 बज रहे होते और इसके बाद तुम्हारी डेढ़ घंटे की नींद मारी जाती!’ यह सुनकर वह शांत हो गया, लेकिन वह खुश नहीं था क्योंकि उसे लग रहा था घर में बिन बुलाया अतिथि आ गया। ध्यान दीजिए, उसका घर मुम्बई में 20 करोड़ की कीमत वाला एक सी-फेसिंग अपार्टमेन्ट है। मैंने अपने मुम्बई वाले मित्र को समझाया कि ‘तिथि’ का मतलब है नियत समय, जबकि ‘अतिथि’ का मतलब है कि ऐसा व्यक्ति जो बिना पूर्व सूचना दिए पहुंच जाता है। मैंने कहा, इस सुबह जो रिश्तेदार तुम्हारे घर बिना बताए पहुंचा वह थका हुआ था। इसीलिए तुम्हारे पास मदद की आस लिए पहुंचा। तुम्हें तो खुद को भाग्यशाली समझना चाहिए क्योंकि अपनी भागमभाग वाली जिंदगी में तुम्हें शायद ही किसी अतिथि के स्वागत का मौका मिलता होगा। इसलिए आज अगर ये अवसर मिला है तो जो कुछ कर सकते हो, तुम्हें करना चाहिए।’ मैंने जब ये सब कहा तो उसे याद आया कि कैसे उसके दादा-दादी अचानक घर आए ‘अतिथि’ का उत्साह से स्वागत करते हुए सबको जगाते हुए कहते थे, ‘अरे उठो-उठो, देखो कौन आया है’! और उस समय भले ही वह मेहमान बार-बार निवेदन भी करता था कि घर में किसी को परेशान मत करो तो भी बड़े-बुर्जुग मानते नहीं थे।

अगर हम आज के दौर के बच्चों के साथ ऐसा करेंगे तो वे उल्टे हम पर यह कहते हुए बरस पड़ेंगे कि, हमने उनकी प्राइवेसी में खलल डाला है और आज के ‘मॉर्डन कोड ऑफ कंडक्ट’ वाली दुनिया में किसी अनजाने अतिथि का सूरज निकलने से पहले घर आने को गलत व्यवहार की तरह लिया जाता है। यात्राओं पर रोक, लोगों को बिना बड़ी जरूरत घर से निकलने की पाबंदी कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण को रोकने के उपाय हैं। लेकिन इस महामारी का असली समाधान (एंटीडॉट) लोगों को एक-दूसरे से जुदा करना (सेग्रिगेशन) नहीं, बल्कि एक-दूसरे का सहयोग करना (कोऑपरेशन) है। ऐसा सहयोग जो इंसानियत का सिर ऊंचा करे, ‘अतिथि देवो भव:’ के अर्थ को सही सिद्ध करे। महामारियों ने करोड़ों इंसानों की जान ली है। लेकिन, इसके बावजूद जिस चीज ने दुनिया को फिर से खड़ा किया और जीने लायक बनाए रखा, वह सहयोग की भावना है और इसीलिए हमारे पुरखों ने हमें इंसानियत को सबसे ऊपर रखना सिखाया, जिसका सीधा सा मतलब अलगाव और अकेलापन नहीं, साथ मिलकर मुसीबतों का मुकाबला करना है। आज अलगाव का स्पष्ट मतलब सरकार द्वारा अस्थायी तौर पर लगाए गए ऐसे प्रतिबंध है जिससे कि इस महामारी पर काबू किया जा सके।

फंडा ये है कि, हर किसी को आज की मुश्किल परिस्थितियों को देखते हुए खुद को अलग-थलग रखने में समझदारी रखनी चाहिए, लेकिन ध्यान रखिए कि ये सिर्फ कुछ समय के लिए होना चाहिए, न कि हम इंसानों को इसे अपनी स्थायी आदत बना लेना चाहिए। हर तरह से इंसानियत सर्वोपरि है।



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Atithi Devo Bhava: Perfect time to learn!


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खुश रखने व खुश रहने में ही असली खुशी

खुश रहिए-खुश रखिए..। इसमें खुश रहना तो आसान है, पर खुश रखना कठिन है। लेकिन, खुशी पूरी तब ही होती है, जब आप खुद भी खुश रहें और दूसरों को भी खुश रख सकें। जैसे-जैसे जीवन में दौड़-भाग बढ़ी, प्राथमिकताएं बदलीं और मनुष्य के तनाव बढ़ते गए। इसलिए मनुष्य ने खुश रहने के लिए नए-नए तरीके ईजाद किए। सात साल पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बात पर विचार किया गया कि खुशी लोगों को समझाई जाए। खुशी एक फैक्टर बन गया।

खुश रहना मनुष्य का मूल स्वभाव था, पर इसके लिए आयोजन किए जाने लगे। 20 मार्च को जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुशी दिवस के रूप में मनाया जा रहा हो, तब इसेे अपनी दुनिया में भी उतारिए। मनुष्य को खुशी वस्तुओं से, परिस्थितियों से और व्यक्तियों से मिलती है। आपके सहकर्मी, व्यावसायिक संबंध वाले लोग, मित्र-रिश्तेदार, माता-पिता, बच्चे तथा जीवन साथी।

व्यक्तियों का एक लंबा दायरा है जहां से आपको खुशी मिलती है। हो सकता है इन्हीं लोगों से दुख भी मिलता हो, पर खुशी के मामले में पहला काम करना है खुशी की तलाश। जीवन में वो कौन से बिंदु और स्थितियां हैं जहां खुशी मिल सकती है, सबसे पहले इन्हें तलाशिए, उसके बाद खुशी का स्वागत कीजिए। तीसरी स्थिति है, उसे बटोरिए और चौथी स्थिति में उस खुशी को औरों में बांटिए। बस, यहीं से बात समझ में आ जाएगी कि खुश रहिए-खुश रखिए। जीवन की वास्तविक खुशी इसी में है..।



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Real happiness in keeping happy and being happy


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कोरोना से लड़ने में मदद करते असली आइकॉन

हर समाज में प्रतिमान (आइकॉन) बनाने की एक प्रक्रिया होती है, लेकिन अगर आइकॉन गलत बनने लगें तो समाज की दिशा और दशा बदलने लगती है। इन आइकॉन की सही पहचान संकट की घड़ी में ही होती है, जब जिजीविषा पर असली देश-प्रेम प्रभावी होता है। आईटीबीपी और सेना की क्वारंटाइन केन्द्रों की टीमों के सदस्य पिछले 47 दिनों से अपने घर नहीं गए हैं। यहां के डॉक्टर, नर्सें और सपोर्ट स्टाफ दिन-रात बाहर से लौटे कोरोना के संदिग्ध भारतीयों के इलाज और तीमारदारी में लगे हुए हैं।

48 घंटों में एक बिल्डिंग को अस्पताल में तब्दील करना और फिर जांच सुविधाओं व चिकित्सकीय ढांचा खड़ा करना किसी जंग में फतह पाने से कम नहीं रहा होगा। ठीक इसी के उलट गाजियाबाद में दो डॉक्टरों ने इस महामारी में इमरजेंसी ड्यूटी पर आने से मना कर दिया और बीमारी का बहाना कर घर बैठ गए। इस राष्ट्रीय संकट की घड़ी में एक वर्ग जान की परवाह न करके पूरे देश को बचाने में लगा है। जबकि दूसरा वर्ग महंगे दाम पर मास्क और दवाएं बेचकर या नकली सेनेटाइजर बाजार में लाकर अपनी गिद्ध-प्रवृत्ति से मानवता को शर्मसार कर रहा है।

एक राज्य में सत्ता को लेकर जंग चल रही है और जनता के वोटों से माननीय बने लोगों के पाला बदलने का खतरा राजनीतिक वर्ग की असंवेदनशीलता का प्रदर्शन कर रहा है। इन माननीयों का कर्तव्य तो क्षेत्र में जाकर दिन-रात स्वास्थ्य सेवाओं में मदद करना, लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरूक करना और भय की जगह संकट से लड़ने का उत्साह भरना होना चाहिए था। लेकिन, वे आज पांच तारा होटलों में बिकने से बचाने के लिए लाए गए हैं।

ये माननीय जब जनता के ही पैसे से कोई सड़क या स्कूल की दीवार बनवाते हैं तो जिद इस बात की होती है कि शिलापट्ट पर लिखा जाए कि ‘माननीय सांसद या विधायक के कर कमलों द्वारा शिलान्यास’। दरअसल हमें अपने आईकॉन उन डॉक्टरों/नर्सों को बनाना चाहिए, जो अपने बच्चों को 47 दिनों से दूर घरों में छोड़कर कोरोना से जंग लड़ने में हमारी मदद कर रहे हैं। सही प्रतिमान बनाने का लाभ यह होगा कि समाज के अन्य लोगों में भी ऐसा ही प्रयास करने की इच्छा पनपेगी और हम सब सही सोच से फैसले कर सकेंगे।



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आईटीबीपी और सेना के क्वारंटाइन केन्द्र- फाइल फोटो।


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आखिरकार दुष्कर्मियों को कल सुबह 5:30 बजे होगी फांसी, मौत की सजा से एक दिन पहले दोषियों की 5 याचिकाएं खारिज

नई दिल्ली. निर्भया को न्याय मिलते-मिलते आखिरकार मिल ही गया। उसके चारों दुष्कर्मियों- मुकेश सिंह, पवन गुप्ता, विनय शर्मा और अक्षय ठाकुर ने मौत से एक दिन पहले तक बचने के लिए सारी तिकड़में लगा दीं, लेकिन कोर्ट ने उनकी फांसी नहीं टाली। गुरुवार को एक ही दिन में दोषियों की 5 याचिकाएं खारिज हो गईं। पवन-अक्षय ने दूसरी बार दया याचिका भेजी, वो भी खारिज हो गई। मुकेश ने वारदात वाले दिन दिल्ली में नहीं होने का दावा किया था, वो भी सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। फांसी पर रोक लगाने के लिए भी याचिका लगाई थी, लेकिन पटियाला हाउस कोर्ट ने इसे भी नहीं माना। अब शुक्रवार सुबह 5:30 बजे चारों दुष्कर्मियों को तिहाड़ की जेल नंबर-3 में फांसी मिल जाएगी।

तलाक की अर्जी भी लगाई थी, लेकिन फांसी नहीं रोक सके
फांसी रोकने के लिए दोषी अक्षय की पत्नी पुनीता ने 18 मार्च को औरंगाबाद की एक कोर्ट में तलाक की अर्जी भी लगाई थी। उसने दलील दी थी कि वो विधवा की तरह नहीं जीना चाहती। लेकिन उसके बाद भी दोषियों की फांसी नहीं रुक सकी। इसका कारण भी था। 35 साल तक तिहाड़ में लॉ अफसर रहे सुनील गुप्ता और वरिष्ठ वकील उज्जवल निकम ने दैनिक भास्कर से बातचीत में पहले ही कह दिया था कि तलाक की अर्जी लगी होने के बाद भी दोषियों की फांसी रोकने की गुंजाइश न के बराबर है। क्योंकि तलाक सिविल मामलों में आता है और फांसी क्रिमिनल मामलों में। और क्रिमिनल मामलों पर सिविल मामले असर नहीं डालते।

लेकिन दोषियों के वकील कहते रहे- पुनीता को न्याय मिलना चाहिए
बार-बार फांसी टलवा रहे दोषियों के वकील एपी सिंह को जब इस बार फांसी टलवाने का कोई कारण नहीं मिला, तो उन्होंने कहा कि उसे (अक्षय की पत्नी) न्याय मिलना चाहिए। एपी सिंह ने भास्कर से फोन पर बात करते हुए कहा था- "वो (अक्षय की पत्नी) पीड़िता है। उसका अधिकार है। अगर उसको (अक्षय) फांसी दे दोगे, तो उसकी पत्नी के अधिकारों का क्या होगा? वो तो विधवा हो जाएगी। वो तो जवान लड़की थी। उसकी एक साल पहले ही शादी हुई थी और दो महीने का बच्चा था। तबसे अक्षय जेल में है।' एपी सिंह ने ये भी बताया था कि दोषियों की जितनी भी लीगल रेमेडिज बाकी थी, वो सब लगा दी थी।

दोषियों की फांसी नहीं टल सकी, उसके दो कारण

1) 14 दिन का समय खत्म : सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन कहती है कि डेथ वॉरंट और फांसी की तारीख में 14 दिन का अंतर होना चाहिए। दोषियों का डेथ वॉरंट 5 मार्च को जारी हुआ था।
2) सारे कानूनी रास्ते भी खत्म : फांसी की सजा में दोषी को सारे कानूनी रास्ते इस्तेमाल करने का अधिकार होता है और चारों दोषियों ने अपने सारे कानूनी अधिकार इस्तेमाल भी कर लिए हैं। चारों की रिव्यू पिटीशन, क्यूरेटिव पिटीशन और दया याचिका भी खारिज हो चुकी है।



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Nirbhaya Convicts Hanging Latest News: Nirbhaya Rapists Lawyer and Tihar Jail Officer Speaks To Dainik Bhaskar On Delhi Gang Rape And Murder Case Convicts Akshay Kumar Singh, Pawan, Vinay Kumar Sharma, Mukesh Kumar


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26 साल पहले तक सरकार बर्खास्त करने से पहले फ्लोर टेस्ट जरूरी नहीं था, 1989 में कर्नाटक की बोम्मई सरकार गिरने के 5 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे जरूरी किया

नई दिल्ली. पिछले एक-दोसाल में कई बार फ्लोर टेस्ट के बारे में हम सुनते आ रहे हैं। कभी कर्नाटक में। कभी महाराष्ट्र मेंऔर अब मध्य प्रदेश में। जब भी किसी सरकार पर संकट आता है, जैसे- अभी मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार पर आया है। तो उसे भी फ्लोर टेस्ट से गुजरना ही पड़ता है। पहली बार ऐसा 26साल पहले हुआ।

कर्नाटक में 1985 में 8वीं विधानसभा के लिए चुनाव हुए। इस चुनाव में जनता पार्टी ने राज्य की 224 में से 139 सीटें जीतीं। कांग्रेस 65 ही जीत सकी। जनता पार्टी की सरकार बनी। मुख्यमंत्री बने रामकृष्ण हेगड़े,लेकिन हेगड़े पर फोन टैपिंग के आरोप लगे, जिस वजह से उन्होंने 10 अगस्त 1988 को इस्तीफा दे दिया। इसके बाद मुख्यमंत्री बने एसआर बोम्मई,लेकिन कुछ ही महीनों में यानी अप्रैल 1989 में उनकी सरकार को भी कर्नाटक के उस समय के राज्यपाल पी वेंकटसुब्बैया ने बर्खास्त कर दिया। कारण दिया कि बोम्मई के पास बहुमत नहीं था। हालांकि, बोम्मई ने दावा किया था कि उनके पास बहुमत है।


मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। कई सालों तक सुनवाई चली। सरकार बर्खास्त होने के 5 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया और कहा कि फ्लोर टेस्ट ही एकमात्र ऐसा तरीका है, जिससे बहुमत साबित हो सकता है। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था,‘जहां भी ये संदेह पैदा हो कि सरकार या मंत्रिपरिषद ने सदन का विश्वास खो दिया है, तो वहां परीक्षण ही एकमात्र तरीका है- सदन के पटल पर बहुमत हासिल करना।’ सरल शब्दों में कहें तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी सरकार के पास बहुमत है या नहीं, उसका फैसला सिर्फ विधानसभा में ही हो सकता है।

कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई।- फाइल फोटो

संविधान एक्सपर्ट मानते हैं कि आजादी के बाद कई सालों तक राज्यपाल बिना किसी फ्लोर टेस्ट के ही सरकारें बर्खास्त कर देते थे। अगर किसी सरकार पर संकट आता भी था, तो ऐसे हालात में विधायकस्पीकर या राज्यपाल के सामने परेड करते थे या फिर अपने समर्थन की चिट्ठी भेजते थे। इससे गड़बड़ियां भी होती थीं। 1989 में भी कर्नाटक की एसआर बोम्मई की सरकार ऐसे ही बर्खास्त कर दी गई थी। 1967 में बंगाल की अजॉय मुखर्जी के नेतृत्व वाली यूनाइटेड फ्रंट सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। कहा गया कि उनके पास बहुमत नहीं है।उनकी जगह कांग्रेस के समर्थन से पीसी घोष को मुख्यमंत्री बना दिया गया। हालांकि, कुछ विशेष परिस्थितियों में राज्यपाल सरकार बर्खास्त करने की सिफारिश कर सकते हैं।


1994 के फैसले के 23 साल बाद यानी 2017 में गोवा से जुड़े एक मामले में फ्लोर टेस्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक और टिप्पणी की,‘फ्लोर टेस्ट से सारी शंकाएं दूर हो जाएंगी और इसका जो नतीजा आएगा, उससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी विश्वसनीयता मिल जाएगी।’

दो तरह के फ्लोर टेस्टहोते हैं

  • सामान्यफ्लोर टेस्टजब भी कोई पार्टी या गठबंधन का नेता मुख्यमंत्री बनता है, तो उसे सदन में बहुमत साबित करना होता है। इसके अलावा अगर सरकार पर कोई संकट आ जाए या राज्यपाल को लगे कि सरकार सदन में विश्वास खो चुकी है, तो भी फ्लोर टेस्ट होता है। इसमें मुख्यमंत्री सदन में विश्वास प्रस्ताव लाता है और उस पर वोटिंग होती है।इसको ऐसे समझिए किजुलाई 2019 में कर्नाटक मेंकांग्रेस-जेडीएस गठबंधनकी सरकार पर संकट आ गया। सदन में फ्लोर टेस्ट हुआ। इसमें कांग्रेस-जेडीएस के पक्ष में 99 और विरोध में 105 वोट पड़े। इस तरह सरकार गिर गई थी।
  • कंपोजिट फ्लोर:जब एक से ज्यादा नेता सरकार बनाने का दावा कर दें। ऐसे हालात बनने पर राज्यपाल विशेष सत्र बुला सकते हैं और देख सकते हैं कि किसके पास बहुमत है। इसमें विधायक सदन में खड़े होकर, हाथ उठाकर, ध्वनिमत से या डिविजन के जरिए वोट देते हैं। इसको ऐसे समझ सकते हैं कि फरवरी 1998 में उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार को बर्खास्त कर दिया गयाऔर कांग्रेस के जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बना दिया गया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 48 घंटे के अंदर कंपोजिट फ्लोर टेस्ट कराने का आदेश दे दिया। इसमें कल्याण सिंह की जीत हुई। उन्हें 225 वोट मिले और जगदंबिका पाल को 195 वोट।


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Kamal Nath MP Floor Test | Dainik Bhaskar Research On Floor Test; Facts History of Floor Test in Madhya Pradesh Karnataka


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भारत तो स्वतंत्र है पर हमारी शिक्षा नहीं

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा पिछले महीने की अपनी यात्रा के दौरान भारत की प्रशंसा किए जाने पर हमें खुश होना ही चाहिए, लेकिन हमें इसमें बह नहीं जाना चाहिए। असल में हमारी आकांक्षाओं और वास्तविकता में बहुत बड़ा अंतर है। सबसे बड़ा अंतर तब नजर आता है, जब हम स्कूलों की ओर देखते हैं। पिछले 70 सालों से हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे एक स्वतंत्र सोच, आत्मविश्वास और इनोवेटिव भारतीय की तरह बड़े हों। लेकिन हमारे शिक्षा तंत्र ने वह सबकुछ किया है, जिससे उन्हें दबा हुआ और अधिकारहीन रखा जाए। यह दुखद है कि साल-दर-साल अभिभावकों को बच्चों को अच्छे स्कूलों में एडमिशन दिलाने के लिए लंबी लाइनों में लगना पड़ता है। इनमें अधिकतर को मायूसी ही मिलती है, क्योंकि अच्छे स्कूलों में पर्याप्त सीटें नहीं हैं। शिक्षा की स्थिति पर वार्षिक रिपोर्ट (एएसईआर) में हर बार यह बुरी खबर आती है कि कक्षा पांच के आधे से भी कम बच्चे ही एक पैराग्राफ को पढ़ सकते हैं या कक्षा दो की किताब से गणित का सवाल हल कर सकते हैं। कुछ राज्यों में 10% से भी कम शिक्षक पात्रता परीक्षा को पास कर पाते हैं। यूपी और बिहार में तो चार में से तीन शिक्षक पांचवीं की किताब से प्रतिशत का सवाल नहीं कर सकते।

इसकी वजह अच्छे स्कूलों की कमी है। अभिभावकों को अपने बच्चे निजी स्कूलों मेंं भेजने के लिए मजबूर किया जाता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2011 से 2015 के बीच सरकारी स्कूलों में नामांकन 1.1 करोड़ कम हुआ, इसके विपरीत निजी स्कूल में 1.6 करोड़ बढ़ा। इस ट्रेंड के आधार पर 2020 में देश में 1,30,000 अतिरिक्त निजी स्कूलों की जरूरत है, लेकिन वे नहीं खुल रहे हैं। क्यों? इसके कई कारण हैं। पहला यह कि किसी ईमानदार के लिए स्कूल खोलना बहुत मुश्किल है। इसके लिए राज्य के अनुसार 30 से 45 अनुमतियों की जरूरत होती है और इनमंे से अधिकांश के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। सबसे अधिक रिश्वत स्कूल बोर्ड से मान्यता हेतु असेंशियलिटी सर्टिफिकेट (यह साबित करना कि स्कूल की जरूरत है) के लिए देनी होती है। इस कमी की दूसरी वजह फीस पर नियंत्रण है। समस्या शुरू होती है शिक्षा का अधिकार कानून से। जब सरकार को लगा कि सरकारी स्कूल विफल हो रहे हैं तो उसने निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटें गरीबों के लिए आरक्षित करने को कहा। यह एक अच्छा विचार था, लेकिन इसे खराब तरीके से लागू किया गया। क्योंकि सरकार निजी स्कूलों को इन आरक्षित सीटों के बदले ठीक से मुआवजा नहीं दे सकी, जिसकी वजह से फीस देने वाले 75 फीसदी बच्चों पर बोझ बढ़ा। इसका अभिभावकों ने विरोध किया। कई राज्यों ने फीस पर नियंत्रण लगा दिया, जिससे लगातार स्कूलों की वित्तीय स्थिति खराब हो गई। जिंदा रहने के लिए कई स्कूलों ने खर्चे कम किए, जिससे गुणवत्ता में कमी आई और कई स्कूल तो बंद ही हो गए।

स्कूलों की स्वायत्तता पर नया हमला निजी प्रकाशकों की किताबों को प्रतिबंधित करना है। 2015 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने स्कूलों को सिर्फ एनसीईआरटी की किताबें ही इस्तेमाल करने का निर्देश दिया है। इससे किताबों की कीमत में तो कमी आई है, लेकिन अभिभावक इनकी गुणवत्ता व देरी को लेकर चिंतित हैं। यद्यपि एनसीईआरटी की किताबें बेहतर हुई हैं, लेकिन पढ़ाई का पुराना तरीका कायम है। शिक्षक हैलो इंग्लिश और गूगल बोलो जैसे आश्चर्यजनक एप्स से अनजान हैं, जो भारतीय बच्चों को तेजी से अंग्रेजी बोलना सिखा सकते हैं। शिक्षाविदों की चिंता है कि इस प्रतिबंध से भारतीय बच्चे दुनिया में हो रही क्रांतियों के बारे में जानने से वंचित हो सकते हैं, विशेषकर डिजिटल लर्निंग के क्षेत्र में। इससे वे ज्ञान अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में राेजगार के अवसरों से भी वंचित हो सकते हैं।

दुखद है कि एशिया का उच्च प्रदर्शन वाला शैक्षिक तंत्र एक उदार बहुपुस्तक नीति के विपरीत दिशा में चला गया है। इसने एक किताब और एक परीक्षा की कड़ी को तोड़कर विद्यार्थियों के प्रदर्शन को बेहतर बनाया था। चीन ने 1980 के आखिर में ही राष्ट्रीय पुस्तक नीति को छोड़ दिया था और बच्चों को कई किताबें इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया, ताकि वे आधुनिक समाज के वास्तविक अनुभवों से जुड़ सकें।

गणतंत्र बनने के 70 साल के बाद अब समय है कि निजी स्कूलों को स्वयत्तता दी जाए। 1991 के सुधारों ने उद्योगों को स्वायत्तता दी, लेकिन हमारे स्कूलों को नहीं, जो आज भी लाइसेंस राज के नीचे कराह रहे हैं। इसके बावजूद भारत के विकास में निजी स्कूलों का योगदान अमूल्य है। इनमें पढ़े लोग हमारे प्रोफेशनल, सिविल सेवा और व्यापार में उच्च पदों पर हैं। यह समय है कि भारत को अब अपना वह सामाजिक पाखंड छोड़ देना चाहिए, जाे निजी स्कूलों को लाभ कमाने से रोकता है। जिंदा रहने के लिए उसे लाभ कमाना ही होगा और इससे ही गुणवत्ता बढ़ेगी व अच्छे स्कूलों की मांग पूरी हो सकेगी। इन्हें केवल नॉन प्रॉफिट से प्रॉफिट क्षेत्र में बदलने से क्रांति आ सकती है। इससे शिक्षा के क्षेत्र में निवेश आएगा और इनकी गुणवत्ता बढ़ेगी। आज भारतीय अच्छी शिक्षा के लिए खर्च करने को तैयार हैं। एक स्वतंत्र देश मंे किसी को एक अच्छे स्कूल या बेहतर किताब पर खर्च करने से क्यों रोका जाना चाहिए?

निजी स्कूलों पर अधिक नियंत्रण की बजाय सरकार को सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने पर फोकस करना चाहिए। इसकी शुरुआत मंत्रालय को दो कार्यों को अलग करके करनी चाहिए- 1. शिक्षा का नियमन बिना पक्षपात के करने के लिए सार्वजनिक व निजी दोनों ही क्षेत्रों पर समान मानदंड लागू करना। 2. सरकारी स्कूलों को चलाना। आज हितों के टकराव की स्थिति है, जो प्रशासक को भ्रमित करती है और उसका परिणाम गलत नीतियां होती हैं। समय आ गया है, जब निजी स्कूलों को अधिक स्वतंत्रता दी जाए, सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता सुधारी जाए और उस दिन का इंतजार किया जाए जब एडमिशन के लिए ये लाइनें छोटी होंगी और हमारी आकांक्षाएं हकीकत के निकट होंगी। हो सकता है कि तब कोई अमेरिकी राष्ट्रपति हमारी शिक्षा की गुणवत्ता के लिए हमारी प्रशंसा करे। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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India is free but our education is not


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धार्मिक होने का मतलब खुद को जानना

अच्छे से अच्छा चित्रकार भी अपना चेहरा बनाने में गड़बड़ा जाता है। जिस चेहरे को हम रोज आईने में देखते हैं, कहीं छपे हुए रूप में देखते हैं तो उससे परिचित तो होते हैं, लेकिन बनाने की नौबत आए तो चाहे चित्रकार हो या सामान्य व्यक्ति, आसानी से नहीं बना पाएगा, क्योंकि इस चेहरे के पीछे कई चेहरे हैं। एक लंबी जीवन यात्रा होती है, तब जाकर कोई चेहरा बनता है। यदि अपना असली चेहरा देखना चाहें तो जीवन की अंतिम सांस में नजर आता है।

ऐसा कहते हैं कि मरने वाला व्यक्ति अपनी आखिरी सांस के साथ पूरे जीवन का चेहरा देखने लगता है। आपके कोई परिचित, प्रियजन जिनकी मृत्यु हो चुकी हो, उन्होंने अपनी मौत के समय जिस ढंग से अंतिम सांस ली और तब आप उनके पास रहे हों, तो ऐसे दृश्यों को जरूर नोट कर उस पर चिंतन करें। फिर उसे अपनी अंतिम सांस से जोड़कर चलिए। हम में से हर एक के पास मृत्यु के ऐसे दृश्यों की धरोहर जरूर होगी। जो लोग इस दुनिया से गए, वो एक सबक दे गए होंगे कि यदि अंतिम सांस के समय होश रखा तो अपना, अपने जीवन का चेहरा अच्छे ढंग से देख सकेंगे। आखिरी वक्त की सांसें आईना होती हैं। लेकिन इस आईने में चेहरा देखने की तैयारी एकदम से नहीं की जा सकती, थोड़ी-थोड़ी रोज करनी पड़ती है। इसी को योग कहते हैं। पूजा-पाठ, साधना भी इसी में शामिल है। धार्मिक होने का मतलब ही यह है कि अपने आपको जान सकें, न कि धर्म के नाम पर हल्ला करें..।



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Being religious means knowing yourself


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नई व्यापार व निवेश व्यवस्था के निर्माण का मौका

यह कहना आम हो गया है कि आज वैश्वीकरण चौराहे पर है। ब्रेक्जिट से लेकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव तक, माइग्रेशन के खिलाफ पश्चिमी पलटवार से लेकर दुनियाभर में बढ़ती व्यापारिक बाधाओं तक, यह समय वैश्वीकरण के सिमटने का माना जा रहा है। वैश्विक कुलीनों की उदार व्यवस्था को पहले कभी ऐसी चुनौती नहीं दी गई और तमाम बहुआयामी संस्थान अपने ही विरोधाभासों से ढह रहे हैं। काेरोना वायरस के जोखिम के हमारे दैनिक जीवन में प्रवेश करने से पहले ही दुनिया विभक्त होने के कगार पर थी। यह 2008/09 के वित्तीय संकट से मौजूदा वित्तीय टूट तक पहुंचने की सीधी यात्रा है। यह वंचितों को प्रभावी शासन देने और उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने में दुनिया के राजनीतिक और आर्थिक कुलीनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रही है। अब एक के बाद दूसरा देश खुद को अलग-थलग कर रहा है। कोविड-19 का प्रसार उस तरीके को चुनौती दे रहा है, हम जिसमें रहने के आदी थे और यह न केवल हमारे दैनिक जीवन को बल्कि वैश्विक क्रम को भी व्यवस्थित कर रहा है।

जब यह शुरू हुआ तो ऐसा लग रहा था कि यह सिर्फ चीन की समस्या है। अमेरिका के वाणिज्य मंत्री विलबर रोस ने तो यहां तक कह दिया था कि इस वायरस से नौकरियों के उत्तर अमेरिका लौटने की दर तेज होगी। जैसे-जैसे कोरोना वायरस का दुनिया में प्रकोप बढ़ा, इससे वैश्विक सप्लाई चेन पर प्रभाव पड़ने की बात करना फैशन सा हो गया। दुनिया की जो अर्थव्यवस्था पहले से ही हांफ रही थी, इस झटके ने शायद धन, सामान और लोगों की आपूर्ति बढ़ाने की उसकी अाखिरी उम्मीद को भी छीन लिया है। इस वायरस की वजह से चीन की शासन प्रणाली पर भी बहस होने लगी है। अनेक ऐसे लोग हैं, जाे कोराेना वायरस को लेकर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की प्रतिक्रिया को शासन के चीनी मॉडल का अच्छा पहलू बता रहे हैं। ये लोग साथ ही भारत जैसे देशों की ऐसे संकट से निपटने की क्षमता पर सवाल भी उठा रहे हैं। इसका चीन पर बहुत प्रभाव पड़ा है, लेकिन अब भी उसके पास इससे उबरने की क्षमता है। चीन के लिए बड़ी चुनौती पश्चिम से आ रही है, जिसने सालों तक उसकी वैश्विक एकीकरण की नीति का समर्थन करने के बाद अब उससे मुंह फेरना शुरू किया है। ट्रम्प की चीन के साथ टैरिफ को लेकर शुरू हुई लड़ाई ने पहले ही यह सुनिश्चित कर दिया था कि ग्लोबल असेंबली लाइन ने अब चीन से छिटकना शुरू कर दिया है। अब व्यापार और तकनीकी को अलग करने का एक कदम विवाद का नया मंच तैयार कर रहा है। इसमें वैश्वीकरण की उन बुनियादी बातों को भी चुनौती दी जाएगी, जिनके 1990 से हम अभ्यस्त हो गए हैं।

अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में अधिक से अधिक खुलेपन, खुले बाजार और खुली सीमाओं पर जोर देने वालों के आलोचकों को यह संकट मजबूती देगा। और उन लोगों को कमजोर करेगा, जो चुनौतियों के बावजूद वैश्वीकरण के लिए आवाज उठाते रहे हैं। वैश्वीकरण के खिलाफ हो रहा पलटवार और तेज होगा और इसे गति मिलती रहेगी। पश्चिम में तो ऐसा होना शुरू भी हो चुका है। खासकर वहां पर जहां मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों ने व्यापार और माइग्रेशन पर अपने लंबे समय से स्थापित रुख को बदलना शुरू कर दिया है। जैसे-जैसे दुनिया और विभाजित होगी, वैश्वीकरण को दोबारा खड़ा करना और चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। यह भारत जैसे देशों के लिए समस्या है, जिन्हें वैश्वीकरण से भारी लाभ हुआ है। इससे उन्हें सूचना व विचारों का मुक्त प्रवाह, धन व नौकरियां मिलीं और लोगों ने भारतीयों को इतना अमीर बनाया, जितने वे पहले कभी नहीं थे। लेकिन, जैसे ही तेजी से वैश्विक परिदृश्य उभरेगा, भारतीय नीतिनिर्धारकों को देखना होगा कि वैश्विक सप्लाई चेन में होने वाली हलचल से उत्पन्न होने वाले अवसरों में से अधिकाधिक को कैसे हासिल किया जाए और एक नई व्यापार व निवेश व्यवस्था का निर्माण किया जाए।

यथार्थवादियों का लंबे समय से तर्क रहा है कि अत्यंत आपसी संबद्धता अत्यंत संवेदनशीलता की ओर ले जाती है। लेकिन यह आसान सीख वैश्वीकरण के उग्र आशावाद की शिकार हो गई। जैसे ही यह आशावाद खत्म होने लगेगा, अधिक नुकसान का खतरा बढ़ेगा। पहले भी अनेक बार वैश्वीकरण का शोकगीत लिखा गया है। यह निश्चित ही इस ताजा प्रहार से भी उबर ही जाएगा। लेकिन, जिस रूप में यह बढ़ेगा, वह हमें चुनौती देगा कि हम उस दुनिया के बारे में अधिक रचनात्मकता से सोचें, जिसमें हम रहते हैं। इस तरह के कुछ पुनर्विचार ताजा खतरे के आने से पहले ही शुरू हो चुके हैं। अब इस ट्रेंड के और तेज होने की उम्मीद है।



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A chance to build a new trade and investment system


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वेबसाइट पर नीले फीते का जहर

अश्लीलता दिखाने वाले वेबसाइट का विरोध किया जा रहा है। एक मुहिम चलाई जा रही है और इस विषय पर राज्यसभा में प्रश्न पूछे गए। सरकार लगभग 900 वेबसाइट्स को प्रतिबंधित कर चुकी है, परंतु वेबसाइट जंगली घास की तरह उग आती हैं। यूरोपीय देश स्वीडन अश्लील फिल्मों, क्लबों और पत्रिकाओं के प्रकाशन के लिए जाना जाता है। स्वीडन में अश्लील किताबें, फिल्में प्रतिबंधित नहीं हैं। पर्यटकों के लिए यह स्वतंत्रता वरदान है। गौरतलब यह है कि स्वीडन में दुष्कर्म सबसे कम होते हैं। ज्ञातव्य है कि कंगना रनौत अभिनीत फिल्म ‘क्वीन’ के कुछ दृश्य स्वीडन के फ्री मार्केट में फिल्माए गए हैं।

याद आता है कि इंदौर के महात्मा गांधी मार्ग पर एक दुकान में विदेशी पत्रिकाएं बिकती थीं। महारानी रोड पर भी एक दुकान में ‘इम्प्रिंट’ व ‘एनकाउंटर’ नामक पाक्षिक पत्रिकाएं आती थीं। बहरहाल, गांधी मार्ग स्थित दुकान के मालिक को इस तरह के विवादास्पद साहित्य का संकलन करना बहुत पसंद था। मित्रों ने पूछा कि दुकानदार को अंग्रेजी भाषा की कामचलाऊ जानकारी है, अत: ये किताबें वह कैसे पढ़ पाता है। दुकानदार ने तपाक से जवाब दिया कि इन किताबों को पढ़ने के लिए अंग्रेजी भाषा के ज्ञान से अधिक आवश्यक है अश्लील अवचेतन। मानव मस्तिष्क में अश्लीलता के प्रति एक स्वाभाविक रुझान है।

होली उत्सव में स्पर्श की इजाजत होती है। इतना ही नहीं, चाल व भाव भंगिमा के द्वारा भी इच्छाएं अभिव्यक्त की जाती हैं। भीड़ में दो समलैंगिक एक-दूसरे को चीन्ह लेते हैं। ज्ञातव्य है कि विद्या बालन अभिनीत फिल्म ‘डर्टी पिक्चर’ में अश्लील माने जाने वाली फिल्मों की नायिका के सुख-दुख और भय को प्रस्तुत किया गया था। इसकी प्रेरणा दक्षिण भारत की एक सितारा के जीवन से मिली थी। यह उस सितारे की अघोषित बायोपिक थी।

एक दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारत के कोषालय में विदेशी मुद्रा की कमी को दूर करने कि लिए अप्रवासी भारतीयों को फिल्म निर्यात की इजाजत दी और हर फिल्म के लिए पांच हजार डॉलर भारत में जमा करना होते थे। उसी दौर में इंटरपोलेशन ऑफ फिल्म प्रिंट भी प्रारंभ हुआ, जिसके तहत विदेशी अश्लील दृश्य भारतीय फिल्म के प्रिंट में जोड़ दिए जाते थे। ज्ञातव्य है कि फिल्म से हटाए गए दृश्य सेंसर बोर्ड पूना फिल्म संस्थान भेज देता था। खाकसार ने उन दृश्यों के लिए पूना संस्थान के गोदाम छान मारे, परंतु कटे हुए दृश्य पर फिल्म का नाम नहीं होने के कारण वह शोध कार्य रोक दिया गया। गोदाम में कचरे की तरह सेल्युलाइड पड़ा हुआ था।

चलते समय भय लगता था कि आपका कोई पैर मर्लिन मुनरो या एलिजाबेथ टेलर के बिंब पर तो नहीं पड़ रहा है? यह आश्चर्य की बात है कि इंडियन पेनल कोड सेक्शन 292, 293, 294 में अश्लीलता को परिभाषित करने से बचा गया है। उसमें लिखा है कि वेबसाइट डिक्शनरी में दी गई परिभाषा को स्वीकार किया जा सकता है। यह समझना जरूरी है कि लेखक का उद्देश्य क्या है? क्या वह उत्तेजना फैलाकर धन कमाना चाहता है? क्या वह एक मानवीय अनुभव के विवरण को प्रस्तुत कर रहा है। सन् 1933 में जेम्स जॉयस के उपन्यास ‘यूलिसिस’ पर अश्लील होने का आरोप था और जज वूल्जे ने यह फैसला दिया था कि किसी भी कृति के एक छोटे से हिस्से के कारण उसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। बहरहाल, आज माता-पिता और परिवार की यह जवाबदारी है कि वे कमसिन किशोरों को मशविरा दें कि उन्हें नीले फीते के जहर से बचना है। ज्ञातव्य है कि अश्लील फिल्मों को नीला फीता कहा जाता है। स्वीडन इस निषेध से पूरी तरह मुक्त देश है। दशकों पहले से ही स्वीडन की शिक्षा संस्थाएं, सेक्स शिक्षा पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। अज्ञान के अंधकार में व्याधियां फैल जाती हैं।



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Blue lace poison on website


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कुछ पुरानी अच्छी आदतों को दोबारा अपनाएं

पास नहीं आइए, हाथ न लगाइए, कीजिए नजारा दूर-दूर से, कीजिए इशारा दूर-दूर से…


यह 1952 की फिल्म ‘साकी’ का गीत है, जिसमें अभिनेता प्रेमनाथ और मधुबाला थे। राजिंदर कृष्ण ने इसे लिखा था। रामचंद्र द्वारा रचित और लता मंगेशकर द्वारा गाया गया ये गीत कोरोना वायरस की नई परिस्थितियों में जीने का सही तरीका प्रतीत होता है। कई लोग मुझसे सहमत होंगे कि उन दिनों ‘इशारों’ में एक तरह का रोमांच था। आप जिसे पसंद करते हैं, उसकी आंखों को पढ़ने में एक अलग खुशी मिलती थी। अपने प्रेमी के हमसे दूर जाते समय उसके पैरों की गति से ‘प्रेम भाव’ का हिसाब लगाते थे और लड़कों की आंखें उनकी प्रेमिका के हाथों के इशारों पर ही सेट होती थीं।

चूंकि अभी कोरोना वायरस का माहौल चल रहा है तो इस गीत को सुन कर मुझे मेरे नाना की याद आई जो स्वच्छता को लेकर बहुत तुनकमिजाज थे। कोई भी उनके कपड़ों, धोती और अन्य सामान को छू नहीं सकता था। उनके सभी कपड़े सफेद होते थे और वे खुद उन्हें धोया करते थे। जब वे 92 की उम्र में गिर गए थे तब उनके कपड़ों को नानी ने धोना शुरू किया, जब तक 96 की उम्र में उनका निधन हुआ।


उनकी धोती की सफेदी आजकल टीवी पर आने वाले वॉशिंग पाउडर के विज्ञापनों से कभी मैच नहीं की जा सकती। वो उतना सफेद था। मैं हमेशा सोचता था कि उनके कपड़े पत्थर पर 100 बार पीटे जाने को कैसे सहते होंगे। वे कपड़े सुखाने वाली रस्सी को भी रूमाल से साफ करते थे, उसके बाद कपड़े सूखने के लिए डालते थे। कुछ कहे जाने पर एक ही जवाब देते थे, ‘मैं ऐसा ही हूं और सभी को इसका पालन करना होगा।’ लेकिन मेरे साथ उनकी बॉन्डिंग अलग थी, क्योंकि मैं उनका पहला नवासा था। वे सभी सवाल जो दूसरे उनसे नहीं पूछ पाते थे, उन सवालों को मेरे माध्यम से पूछा जाता था।


यह बात नाना को भी पता थी, इसलिए वे मेरे सवालों का ऊंची आवाज में जवाब देते थे, ताकि घर पर सभी को जवाब सुनाई दे जाए। जब मैंने उनसे पूछा कि मैं स्कूल से लौटकर आता हूं तो उन्हें गले क्यों नहीं लगा सकता या मैं कपड़े सुखाने वाली रस्सी पर कपड़ों को क्यों नहीं छू सकता? उन्होंने बहुत तार्किक जवाब दिया, बोले- ‘मेरी उम्र 70 वर्ष है और बाहरी कीटाणुओं के प्रति मेरी इम्युनिटी आप सभी की तुलना में बहुत कम है। इसलिए मुझे अपने आप को बचाने की जरूरत है, ताकि मैं आप पर बोझ न बन जाऊं।’


दूसरा नियम यह था कि वे अपनी चांदी की थाली में ही गर्म खाना खाया करते थे। ये थाली उन्हें तब दी गई थी, जब उनकी शादी मेरी नानी से हुई थी। तब वे सिर्फ 16 साल के थे। मतलब मेरी मेरी नानी शादी के वक्त नौ साल की थीं। दिलचस्प यह है कि दोनों केले के पत्तों या उन्हीं प्लेट में खाते हैं जो उन्हें अपनी शादी में मिली थीं। वे जहां भी जाते थे अपनी थाली साथ लेकर जाते थे और उन्हें खुद धोते थे। किसी को भी, यहां तक कि उनकी बेटी को भी इसे धोने की अनुमति नहीं थी, सिवाय उनके और मेरी नानी के। बहुत बाद में मुझे समझ आया कि वायरस और बीमारी के कारण वे अपनी प्लेटें खुद धोना पसंद करते थे, जबकि उनके बेटों के घर में कई नौकर थे।


गांव में हमारे घर का तीसरा और सबसे जरूरी नियम यह था कि जब कोई ट्रेन से यात्रा कर घर लौटता था (उस वक्त हमारा परिवार हवाई जहाज में यात्रा करने के योग्य नहीं था), उसके लिए सबसे पहले स्नान करना जरूरी होता था। फिर सभी बर्तन और कपड़े कुएं के पास रखकर ही घर में प्रवेश दिया जाता था। फिर वह ‘षाष्टांग नमस्कार’ करके आशीर्वाद लेते थे। कहीं से भी घर लौटने पर गले नहीं लगाया जाता था। नाना कभी भी स्टेशन पर किसी को छोड़ने या लेने नहीं जाते थे। ऐसी कई पुरानी आदतें हैं, लेकिन ऐसा नहीं कि ये सभी व्यावहारिक रूप से लागू की जा सकती हैं।

फंडा यह है कि अगर हम अभी ‘नमस्ते’ करने के पुराने तरीके को गंभीरता से ले रहे हैं, तो हमें पुरानी और अच्छी आदतें को भी दोबारा अपनाना चाहिए। हम कम से कम अपनी बुजुर्ग आबादी के लिए पुरानी आदतों को दोबारा अपनाएं, क्योंक बुजुर्गों की इम्युनिटी में कोरोना से लड़ने की क्षमता कम है।



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Re-adopt some good old habits


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किसानों की लागत घटने से होगा अर्थव्यवस्था को लाभ

भले ही 2022 तक किसानों की आय दूनी होने का सरकारी दावा हकीकत न हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि खेती की आय, थोड़ी ही सही पर बढ़ी है। इसके संकेत इस बात से मिलते हैं कि देश में इस वर्ष अनाज पैदावार में रिकॉर्ड वृद्धि का अनुमान है और दूसरी ओर रासायनिक खाद की खपत में पिछले दो वर्षों में लगातार कमी हुई है, यानी किसानों ने कम लागत में ज्यादा अनाज पैदा किया। ताजा आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि यूरिया (नाइट्रोजन) की खपत इस काल में गिरी है, जबकि अन्य दो प्रमुख तत्वों फॉस्फेट और पोटाश की बढ़ी है।

पिछले पांच साल की सरकारी मेहनत रंग लाई है। केंद्र सरकार ने भू-मृदा परीक्षण कार्ड (स्वायल हेल्थ कार्ड) के जरिये किसानों की जमीन की उर्वरा शक्ति की जांच का अभियान शुरू किया है, हालांकि काफी क्षेत्रों में किसानों को यह कार्ड अभी तक नहीं मिला है, यह कहा जा सकता है कि किसानों पर इस अभियान का असर पड़ा है। दरअसल, तमाम ऐसे खेतों में जहां पहले से नाइट्रोजन जमीन में है और यूरिया या अन्य नाइट्रोजन वाली खादें डालने पर जमीन की उर्वरा शक्ति ख़त्म हो रही है। सरकार इसे रोकना चाहती थी। देर से ही सही, शायद अब किसानों को यह बात समझ में आने लगी है और अब वे अन्य दो प्रमुख तत्वों फास्फेट औरपोटाश का प्रयोग करने लगा है।

इसकी वजह से जमीन की उर्वरा शक्ति में तीनों तत्वों का संतुलन बना रहेगा और उत्पादन में आशातीत वृद्धि हो सकेगी। अगर किसानों की पैदावार कम लागत से ज्यादा होगी तो देश के इस 68 प्रतिशत आबादी वाले वर्ग के पास न केवल पैसा आएगा, बल्कि वह इसे तेल, साबुन या अन्य सामान्य उपभोग के सामान पर खर्च करेगा। इन सामानों को बनाने वाले कारखाने बड़े उद्यमों के मुकाबले दस गुना ज्यादा नौकरियां देते हैं, लिहाज़ा यह सेक्टर बेहतर होगा तो युवाओं को ज्यादा रोजगार मिलेंगे और फिर वे भी रोजमर्रा का सामान खरीदेंगे। इससे अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी पर आने लगेगी। ताजा त्रैमासिक आंकड़े बताते हैं कि विकास दर में पिछले सात साल में सबसे ज्यादा गिरावट आई है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि अगर किसान आम उपभोग की वस्तुएं नहीं खरीदेगा तो यह गिरावट और ज्यादा होगी।



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The economy will benefit from decreasing the cost of farmers


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शशि कपूर: मुद्रा राक्षस और मृच्छकटिकम्

आज शशि कपूर जीवित होते तो 82 वर्ष के होते और दक्षिण मुंबई के हार्कनेस रोड पर अटलेंटा बहुमंजिला में शूद्रक के नाटक मृच्छकटिकम, विशाखदत्त, मुद्राराक्षस और हेमलेट पढ़ रहे होते। उन्हें नाटक पढ़ना और अभिनीत करना अत्यंत पसंद था। यह भी संभव है कि अपना जन्मदिन वे जुहू में बनाए गए पृथ्वी थिएटर्स के आहाते में लगे बरगद की छांह में बैठकर मनपसंद वोदका पी रहे होते। सारे कपूर जॉनी वॉकर ब्लैक लेबल पीते रहे, परंतु शशि कपूर ने उस समय वोदका पीना प्रारंभ किया जब वे श्याम बेनेगल, अपर्णा सेन और गोविंद निहलानी निर्देशित फिल्में बनाने लगे। उनके ये सहयोगी महंगी ब्लैक लेबल पीने से अधिक वोदका पीना पसंद करते थे, क्योंकि उनकी आय सीमित थी। हमारी पसंद और नापसंद पर हमारी आय का गहरा प्रभाव होता है।

शशि कपूर के जन्म के समय तक पृथ्वीराज कपूर सबसे अधिक धन कमाने वाले सितारे बन चुके थे। वे इस जमाने में एक फिल्म में अभिनय के लिए एक लाख ग्यारह हजार एक रुपया लेते थे। मेहनताने की यही रकम वे ताउम्र लेते रहे। उन्होंने कभी जमीन-जायदाद नहीं खरीदी, बल्कि अपनी सारी कमाई नाटक मंचित करने में लगा दी। पृथ्वीराज जुहू गली में किराए के मकान में रहते थे। कैफी आजमी व विश्वम्भर आदिल उनके पड़ोसी थे। शशि कपूर ने इसी मकान के सामने वाली जमीन पर पृथ्वी थिएटर्स का निर्माण किया। उनकी पत्नी जैनिफर केंडल ने थिएटर का वास्तु शिल्प संस्कृत रंगमंच से प्रभावित होकर रचा। इस नाट्य घर के निर्माण के समय एकोस्टिक्स का ध्यान रखा गया जिससे हर जगह ध्वनि समान वेग से पहुंच जाती है।

पृथ्वी थिएटर्स और पृथ्वी हाउस के निर्माण में ‘शापुरजी पालनजी’ का सहयोग रहा। ज्ञातव्य है कि नाटक देखने के शौकीन शापुरजी पालनजी ने पृथ्वीराज की सिफारिश पर ‘मुगलेआजम’ में पूंजी निवेश किया था। शापुरजी पालनजी की एक कंपनी भवन निर्माण की भी है। उनकी बनाई इमारतें अपनी मजबूती के साथ ही इसलिए भी पसंद की जाती हैं कि हर कमरे में प्रकाश रहता है और हवा चलती है। शापुरजी पालनजी ने ही पृथ्वी थिएटर्स और पृथ्वी भवन का निर्माण किया। उद्देश्य साफ था कि शशि कपूर के वंशज एक माले पर रहें और शेष चार माले किराए पर दिए जाएं, ताकि मकान के साथ रोटी की भी व्यवस्था हो जाए।

ज्ञातव्य है कि जब केंडल परिवार भारत की शिक्षा संस्थाओं में शेक्सपियर मंचित करने आए तब उन्हें एक भारतीय को अपने दल में शामिल करना जारूरी लगा, क्योंकि वे अनेक शहरों में प्रदर्शन करना चाहते थे। पृथ्वीराज की सिफारिश पर शशि कपूर ने केंडल टीम का सदस्य बनना स्वीकार किया। इस लंबे दौरे के समय शशि कपूर और जैनिफर केंडल में प्रेम हो गया। ज्ञातव्य है कि इंग्लैंड में जन्मी और पली जैनिफर केंडल शाकाहारी थीं और शराब तथा सिगरेट पीने के सख्त खिलाफ थीं। शशि कपूर भी डिनर के बाद एक सिगरेट पीने के लिए अपनी बहुमंजिला इमारत के बगीचे में आया करते थे।

शशि कपूर की इस्माइल मर्चेंट से हुई मुलाकात के कारण शशि को अंग्रेजी भाषा में बनने वाली फिल्मों में अभिनय का अवसर मिला। ज्ञातव्य है कि इस्माइल मर्चेंट का जन्म मुंबई के सिनेमा ‘मराठा मंदिर’ से सटी एक गली में हुआ। लंदन जाकर इस्माइल ने बहुत पापड़ बेले। लंदन में उनकी मुलाकात जेम्स आइवरी से हुई और दोनों ने भागीदारी में फिल्म निर्माण प्रारंभ किया। शशि इस कंपनी के तीसरे भागीदार थे। उनकी सारी फिल्में साहित्य से प्रेरित कथाओं पर बनी हैं। आइवरी मर्चेंट निर्माण संस्था ने ‘प्रिटी पॉली’, ‘व्यू फ्रॉम द टॉप’ इत्यादि फिल्में बनाईं। इस्माइल मर्चेंट ने ‘मुहासिब’ नामक फिल्म की पूरी शूटिंग भोपाल में की थी। कथा फैज अहमद फैज के जीवन से प्रेरित थी, परंतुु उसे फैज साहब का बायोपिक नहीं कह सकते।

बतौर निर्माता शशि कपूर की श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म जुनून थी। इस फिल्म में शशि कपूर, शबाना आजमी, जैनिफर केंडल एवं संजना कपूर केंडल ने भी अभिनय किया है। ज्ञातव्य है कि शशि कपूर और जैनिफर की पुत्री संजना ने भी कुछ वर्ष पृथ्वी थिएटर्स का संचालन किया। बाद में संजना कपूर ने स्कूली छात्रों को रंगमंच पढ़ाया। शशि कपूर ने निर्देशिका अपर्णा सेन के साथ जैनिफर केंडल अभिनीत ‘36 चौरंगी लेन’ नामक फिल्म बनाई जो ऑस्कर प्राप्त करने से मात्र इसलिए चूक गई कि प्रवेश फॉर्म में यह भारत की फिल्म मानी गई, परंतु अग्रेजी भाषा में बनी इस फिल्म को सामान्य श्रेणी में प्रवेश लेना था। शशि कपूर ने महाभारत की कथा को आधुनिक कालखंड में रोपित करते हुए ‘कलियुग’ नाम से बनाया। व्यक्तिगत डर पर विजय पाने के लिए हवाई सेना में भारतीय युवा के सपनों और भय की फिल्म गोविंद निहलानी की ‘विजेता’ थी। शशि कपूर ने निर्देशक गिरीश कर्नाड के निर्देशन में ‘उत्सव’ फिल्म बनाई, जिसकी पटकथा की प्रेरणा ‘मृच्छकटिकम’ और ‘मुद्राराक्षस’ को मिलाकर की गई है। ज्ञातव्य है कि पृथ्वीराज कपूर भी इन दो नाटकों से प्रेरणा लेकर एक नाटक 1928 में ‘एंडरसन नाटक कंपनी’ के लिए कर चुके थे। पिता-पुत्र संबंध इस तरह भी उजागर होते हैं। उपनिषद के एक श्लोक का आशय यह है कि पिता-पुत्र का रिश्ता तीर और कमान की तरह है। प्रत्यंचा पर चढ़ाए तीर को शक्ति से खींचने पर ही पुत्र रूपी तीर निशाने पर लगता है।



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Shashi Kapoor: Mudra Rakshasa and Mruthakatikam


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गोगोई का आकलन राज्यसभा में उनके काम से हो

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा में नामित करने के बाद विवादों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। कुछ लोगों के अनुसार इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित होगी तो कई लोग इसे इनाम के तौर पर बता रहे हैं। लता मंगेशकर, सचिन तेंदुलकर और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जैसे महान लोग राज्यसभा में नामित किए जा चुके हैं। एेसे में गोगोई जैसे विद्वान विधिवेत्ता के राज्यसभा में आने से विधायी कार्यों का सशक्तिकरण ही होगा। सुप्रीम कोर्ट परिसर की दो इमारतें बड़े कानूनविद एम.सी. सेतलवाड और सी.के. दफ्तरी के नाम पर हैं। सेतलवाड की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने अपनी 14वीं रिपोर्ट में रिटायरमेंट के बाद जजों के पद लेने पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून बनाने की अनुसंशा की थी। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के अनेक पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के साथ सभी दलों के बड़े राजनेताओं और बार कौंसिल ने भी सहमति व्यक्त की है। कई साल पहले वोहरा समिति ने नेता, अफसर और उद्योगपतियों के गठजोड़ का बड़ा खुलासा किया था।

आपातकाल के पहले तीन जजों की वरिष्ठता को दरकिनार करके इंदिरा गांधी ने ए.एन. रे को मुख्य न्यायाधीश बनाया था, जिसे न्यायपालिका का काला इतिहास कहा जाता है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील फली एस. नरीमन ने अपनी किताब में आपातकाल के समय न्यायपालिका की दुर्दशा का जिक्र किया है। पुस्तक ‘गॉड सेव द आॅनरेबल सुप्रीम कोर्ट’ के एक प्रसंग में पूर्व अटॉर्नी जनरल सी.के. दफ्तरी कहते हैं कि सबसे अच्छा निबंध लिखने वाला टॉप कर गया। विधि संस्था की रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश जज रिटायरमेंट के बाद किसी न्यायाधिकरण या फिर अप्रत्यक्ष वकालत से जुड़ जाते हैं। ऐसे जजों पर अब कोई विवाद नहीं होता, लेकिन राजनीति में जाने वाले जजों पर हमेशा से विवाद रहा है। जस्टिस छागला को रिटायरमेंट के बाद नेहरू ने अमेरिका का राजदूत बनाया था। उसके बाद रिटायर्ड जज सांसद, राज्यपाल, लोकसभा स्पीकर और उपराष्ट्रपति समेत अनेक भूमिकाओं में आ चुके हैं। उसी तर्ज पर अब गोगोई के राज्यसभा में मनोनयन पर अनेक सियासी कयास लगाए जाना स्वाभाविक है।

सवाल यह है कि जब पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों के दौर में जजों को पार्टी टिकट पर चुनाव भी लड़ाया गया तो अब गोगोई के नामांकन पर हाय-तौबा करने का हक विपक्षी नेताओं को कैसे हो सकता है? हालांकि, पूर्ववर्ती नियुक्तियों के हवाले से गोगोई के नामांकन को सही ठहराने की कोशिश सरकार के लिए उलटी भी पड़ सकती है। कहा जाता है कि सिख दंगों में क्लीन चिट देने के लिए पूर्व चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा को और बिहार कॉपरेटिव घोटाले में जगन्नाथ मिश्रा को क्लीन चिट देने के लिए बहरूल इस्लाम को सांसद बनाया गया था। इसी को देखते हुए ऐसे ही कयास गोगोई की नियुक्ति पर क्यों नहीं लगाए जाएंगे? राज्यसभा की सदस्यता कितनी महत्वपूर्ण है, यह इस बात से जाहिर है कि मध्य प्रदेश और गुजरात में भाजपा प्रत्याशी को जिताने के लिए अनेक कांग्रेसी विधायकों ने त्यागपत्र ही दे दिए। गोगोई को विधि क्षेत्र में विशेषज्ञता हेतु स्वतंत्र सदस्य के तौर पर नामित किया जा रहा है, लेकिन आगे चलकर अगर वे डाॅ. सुब्रमण्यम स्वामी की तर्ज पर यदि वे सत्तारूढ़ पार्टी का हिस्सा बन जाएंगे तो विवाद और बढ़ेंगे।

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने एनजेसी का कानून रद्द करते हुए कहा था कि कानून मंत्री की उपस्थिति से न्यायिक आयोग की स्वतंत्रता खत्म हो जाएगी। उस कानून को रद्द करने वाली बेंच में शामिल जस्टिस कुरियन जोसेफ ने न्यायपालिका में सुधार के लिए पेरोस्त्रोइका और ग्लास्त्नोव जैसे क्रांतिकारी उपायों की बात कही थी। लेकिन, पिछले पांच वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार ने जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को दुरुस्त करने के लिए कोई भी कानून नहीं बनाया, जिससे जजों की नियुक्ति में बंदरबांट जारी है। चीफ जस्टिस बनने से पहले गोगोई ने तीन अन्य जजों के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस करके न्यायिक सुधारों और देश के प्रति अपनी जवाबदेही की बात कही थी। उन्होंने छुट्टी के दिन एक आपातकालीन सुनवाई करके सुप्रीम कोर्ट में माफिया के हस्तक्षेप की बात करते हुए जस्टिस पटनायक को जांच की जिम्मेदारी सौंपी थी। उनके साथ प्रेस काॅन्फ्रेंस में शामिल दो अन्य जजों ने गोगोई को राज्यसभा में नामित किए जाने की आलोचना की है। गोगोई ने कहा है कि शपथ ग्रहण करने के बाद वे राज्यसभा में जाने के अपने फैसले पर प्रकाश डालेंगे। प्रेस कॉन्फ्रेंस में उठाए गए मुद्दे और जस्टिस पटनायक आयोग की जांच रिपोर्ट पर गोगोई द्वारा सदन में अब चर्चा हो तो राज्यसभा में उनका मनोनयन सार्थक हो जाएगा। इसलिए सदन में उनकी भूमिका से ही अगर उनका आकलन किया जाए तो बेहतर होगा।



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सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा में नामित किया गया है।


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बगैर डरे सामना करना होगा स्थिति का

एक सच्चा वीर वही होता है जो सामने वाले का खौफ अपने पर हावी न होने दे। आज देश के राजनीतिक हालात को छोड़िए। इससे केवल राजनेता डरे हुए हैं, आम लोगों को डरने की जरूरत नहीं। बहुत से बहुत क्या होगा? नियम-कानून-कायदे, शिष्टाचार तार-तार हो जाएं, कुछ हद तक संविधान कुचल दिया जाएगा..। लेकिन, एक भय जो चीन से निकलकर दुनियाभर में होता हुआ हमारे यहां भी पसर चुका है, उससे बहुत सावधानी और आत्मविश्वास से निपटने की जरूरत है। कोरोना का दंश जो कई का जीवन लील चुका है, हमें बिना डरे, अपने उपायों से इसका सामना करना होगा।

मेडिकल साइंस के इससे निपटने के अपने दावे हैं, भरपूर प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन यह समय इसे आध्यात्मिक सहारा दिए जाने का है। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि गाय के गोबर के कंडों से उठने वाली धूनी लाइलाज समझी जाने वाली बीमारियों से निपटने में उपचार को अनुकूल बना सकती है। इसी को हनुमानजी से जोड़ दिया जाए।

पूरा परिवार एक साथ हनुमान चालीसा की चौपाइयों के साथ गाय के गोबर के कंडे पर गाय के घी की आहुतियां दे तो उस धूनी से उठने वाली पॉजिटिव तरंगें पूरे वातावरण को शुद्ध कर कोरोना के दुष्परिणामों का सामना करने में सहायक होंगी। चार से पांच मिनट का यह हनुमत हवन हो सकता है आपको इस भयावह आपदा से बाहर निकाल दे, आपमें एक नया उत्साह, आत्मविश्वास पैदा कर दे। यही हमारी वीरता होगी..।



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Have to face the situation without fear


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भारत में कोरोना दूसरे चरण में, बेहद सतर्कता जरूरी

भारत सरकार कोरोना से लड़ने के हर कदम उठा रही है, लेकिन ये प्रयास तभी फलीभूत होंगे, जब नागरिक स्वयं तकलीफ सहने की हद तक सतर्कता बरतेंगे। स्वास्थ्य मंत्रालय का यह कहना कि बिना ट्रैवल हिस्ट्री वाले लोगों में भी कोरोना वायरस पाया जाना इस बात का संकेत है कि यह महामारी अब दूसरे चरण में पहुंच गई है। यानी अब सामुदायिक प्रसार का खतरा पैदा हो गया है। भारत का आबादी घनत्व चीन से तीन गुना, अमेरिका से 13 गुना और ऑस्ट्रेलिया से 113 गुना है। यहां तीन में हर दो व्यक्ति गांव में रहते हैं।

मानव व्यवहार के कई अध्ययनों के अनुसार ग्रामीण भारत में हर चौथा व्यक्ति बच्चों को खिलाने से पहले हाथ नहीं धोता। गरीबी की वजह से साबुन का इस्तेमाल न करना और बीमारी के लक्षण छिपाना, ताकि रोजी-रोटी के लिए बाहर निकलने पर रोक न लगे। स्वच्छता-शून्य गंदी बस्तियों का जीवन इस चरण में देश को बेहद खतरनाक मोड़ पर ला चुका है। इस चरण में बीमारी का प्रसार बेहद तेजी से होता है। भारत के तमाम राज्यों में हाथ धोने के लिए साबुन और पानी की भारी कमी है। दूसरे चरण में कोरोना के प्रसार की रफ़्तार का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हर तीसरे दिन मरीजों की संख्या दूनी हो जाती है। जिन देशों में संक्रमण चरम पर है, वहां इसी दौर में जबरदस्त प्रसार देखा गया है।

बड़े देशों में शुरुआती दौर में यह धीरे-धीरे बढ़ता है, लेकिन दूसरे चरण में प्रसार बेहद तेज हो जाता है। छोटे से इटली ने लॉकडाउन (हर गतिविधि पर रोक लगाकर घर से बाहर न निकलने के आदेश) नीति अपनाई और आज वहां कोरोना प्रसार लगभग रुकने लगा है, लेकिन भारत में बड़ा भू-भाग और लोगों की आदतन स्वच्छता के प्रति असंवेदनशीलता इसके आड़े आ सकती है। साथ ही गरीबी में रोज कमाकर जीवनयापन करने की स्थिति के कारण यहां लॉकडाउन लागू करना आसान नहीं है। यह भी देखने में आ रहा है कि बंेगलुरु, पुणे, दिल्ली, हरियाणा और हैदराबाद की कुछ विदेशी कॉर्पोरेट कंपनियां अभी भी पूरी तरह से ‘वर्क फ्रॉम होम’ की नीति नहीं अपना रही हैं। इस मामले में उनके विदेश स्थिति मुख्यालय आपराधिक उदासीनता बरत रहे हैं। भारत सरकार को इसे सख्ती से रोकना होगा।



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Corona in second phase in India, extreme caution is necessary


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युवा नेताओं के जाने को गंभीरता से ले कांग्रेस

2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के ठीक बाद कांग्रेस कार्यसमिति की एक मीटिंग में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने आत्मावलोकन की जरूरत बताते हुए कहा था कि पार्टी को भाजपा जैसी 21वीं सदी की राजनीतिक ताकत से निपटने के लिए तैयार होना होगा। निर्णय लेने वाली पार्टी की इस सर्वोच्च संस्था में उनकी चिंता पर सबने चुप्पी साध ली। इसके नौ महीने बाद यह चुप्पी टूटी और सिंधिया पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। सिंधिया के इस कदम को समकालीन राजनीति की विचारधाराहीन प्रवृत्ति का रंग देना बहुत आसान है, जहां पर भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे से लड़ने वाले योद्धा अगले ही दिन भगवा रंग में रंग जाते हैं। इस बात में जरा भी संदेह नहीं है कि सिंधिया के फैसले का समय न केवल राज्यसभा चुनाव से मेल खा रहा है, बल्कि यह काफी कुछ एक 49 साल के नेता की महत्वाकांक्षाओं से भी प्रेरित है, जो खुद को देश और प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर पा रहा था। 2019 में लोकसभा का चुनाव हारने और इससे पहले 2018 में मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर होने के बाद उनका मंत्रिपद के बदले भाजपा में जाना अनिवार्य सा लग रहा था। लुटियन दिल्ली में सत्ता का अनुलाभ एक स्थायी लालच रहा है, जहां पर आपका वीवीआईपी दर्जा आपके घर के पते से निर्धारित होता है, न कि आपके नैतिक मूल्यों से।

क्या केवल किसी व्यक्ति की महत्वाकांक्षा कांग्रेस की नई पीढ़ी के एक चमकदार नेता के पाला बदलने को स्पष्ट कर सकती है? सच यह है कि सिंधिया का जाना पार्टी की उस अवस्था को दर्शाता है जो भीतर से ही फट रही है। अगर 2014 की हार का अनुमान लग सकता था तो 2019 के चुनाव ने कांग्रेस के एक प्रभावी राजनीतिक ताकत के रूप में पूरी तरह सिमटने के संकेत दे दिए हैं। जिन 192 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा में सीधा मुकाबला था, उनमें से 175 भाजपा ने औसत 23 फीसदी के अंतर से जीती थीं। हाल के दिल्ली चुनाव में कांग्रेस के 66 में से सिर्फ तीन प्रत्याशी ही अपनी जमानत बचा सके। इसके बावजूद कांग्रेस ने यथास्थिति को तोड़ने के लिए कुछ भी नहीं किया। 2014 में सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस ने पार्टी संगठन को फिर से खड़ा करने की कोई भी गंभीर कोशिश नहीं की। उसने न ही पार्टी में नामांकन की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास किया। कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव हुए भी दो दशक हो गए हैं। इससे वह ऐसी पार्टी बन गई है, जिसमें रिटायर होने की कोई उम्र नहीं है और जो चापलूस संस्कृति को पनपाती है और जहां पार्टी नेतृत्व के प्रति सामंती स्वामीभक्ति ही दिल्ली दरबार में बने रहने के लिए जरूरी है।

असल में कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व ही समस्या की वजह है। मई 2019 में राहुल गांधी के इस्तीफे से कोई समाधान नहीं निकला, क्योंकि इससे पार्टी न केवल दिशाहीन हो गई, बल्कि इसने पार्टी में भीतरी गुटवाद को भी बढ़ावा दिया। राहुल पार्टी प्रमुख के पद से हटे हैं, लेकिन इसके बावजूद वह फैसले लेने वाली मुख्य टीम में शामिल हैं। यह व्यवस्था भ्रम करने वाले संकेत ही देती है। जरा देखें कि राहुल की टीम किस तरह से हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्‌डा को अधिकार न देने पर अड़ी थी, इसी वजह से शायद कांग्रेस को भाजपा शासित इस राज्य में संभावित जीत से वंचित होना पड़ा। जब अगस्त 2019 में राहुल की जगह बीमार सोनिया गांधी को लाया गया तो इसने स्पष्ट कर दिया कि पार्टी के प्रभावी गुट परिवार से बाहर देखने का जोखिम उठाने के अनिच्छुक हैं। अच्छे समय में परिवार ने पार्टी को एकजुट रखा, लेकिन एक अधिक प्रतिद्वंद्विता वाले माहौल में, जहां पर भाजपा नेता अमित शाह खुलकर कांग्रेस मुक्त भारत की बात कहते हों, वहां पर कोई राजनीतिक या नैतिक प्रभाव पार्टी को एकजुट रखने में लंबे समय तक काम नहीं आ सकता। इसका परिणाम पार्टी संगठन का नियमित क्षय हो रहा है और सर्वव्यापी हाईकमान न केवल कार्यकर्ताओं से बल्कि अपने नेताओं से भी कटा है।

मध्य प्रदेश इसका अच्छा उदाहरण है जहां पर कमलनाथ मुख्यमंत्री और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष की दोहरी भूमिका में हैं। दो बार के मुख्यमंत्री के रूप में दिग्विजय सिंह अपने कद का इस्तेमाल कर रहे हैं। कांग्रेस ने यहां पर वह रास्ता चुना जहां पार्टी के पुराने नेता सत्ता के शीर्ष पर काबिज हो गए। इसने सिंधिया जैसों को गंभीर रूप से निराश और नाराज कर दिया। खासकर तब, जब कमजोर हाईकमान उनके हितों के लिए दखल देने का अनिच्छुक था। सिंधिया को उम्मीद थी कि उनके दोस्त राहुल उनके साथ खड़े होंगे, लेकिन नेतृत्व की कमी की वजह से सब बिगड़ गया। जो एमपी के लिए सच है, वही पड़ोसी राजस्थान के लिए भी प्रासंगिक है, जहां पर सचिन पायलट जैसे अगली पीढ़ी के नेता को पार्टी के पुराने नेता अशोक गहलोत ने हाशिए पर कर दिया है।

सिंधिया और सचिन दोनों पुराने नेताओं की तरह राजनीतिक रूप से बहुत दमदार और जमीनी स्तर पर मजबूत पकड़ वाले न दिखते हों। यह तर्क भी दिया जा सकता है कि भले राजनीतिक वंश से होने के कारण इन नेताओं की आकांक्षाओं और उनकी वोटों पर पकड़ में मेल नहीं है। दोनों बहुत ही कम उम्र में केंद्र में मंत्री बना दिए गए थे और उन्हें उनकी पीढ़ी के नेताओं की तुलना में कहीं अधिक मौके दिए गए। लेकिन, सिंधिया और पायलट समकालीन राजनीति में एक महत्वपूर्ण गुण रखते हैं- वे युवा और ऊर्जावान हैं, वे प्रभावी वक्ता हैं और उस भाषा में युवाओं से बात करते हैं, जिसे वह समझते हैं। केवल ऐसे ही करिश्माई नेताओं की कांग्रेस को इस समय जरूरत है, जो कांग्रेस को नए सिरे से खड़ा करके भाजपा की चुनावी मशीन से मुकाबला कर सकते हैं। हो सकता है कि सिंधिया ने संघर्ष की बजाय विचारधारा छोड़कर भाजपा में शामिल होने का एक आसान रास्ता चुना हो। लेकिन, जिस तेजी से ऐसा हो रहा है, क्या उससे कांग्रेस में कोई ऐसा बचेगा भी, जो अच्छा संघर्ष कर सके?

पुनश्च : जो लोग इतिहास की छोटी-छोटी बातों में रुचि रखते हैं वे जान लें कि विजयाराजे सिंधिया 1967 में जनसंघ में शामिल होने से पहले कांग्रेस में थीं और उन्होंने मध्य प्रदेश में कांग्रेस की डीपी मिश्रा सरकार को गिराने में मदद की थी। 53 साल के बाद इतिहास उनके पोते के रूप में खुद को दोहरा रहा है। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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18 साल कांग्रेस में रहने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा हो गए।


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जिस शहर को सबसे पहले लॉकडाउन किया गया, इमरजेंसी के बाद पहली बार वहां से कोई नया मामला सामने नहीं आया

मिलान (इटली).बाल्कनी से संगीत की धुनें, खिड़कियों से तालियों की गड़गड़ाहट और फिर पड़ोस के अपार्टमेंट से एक साथ कोई गीत गुनगुनाने की आवाज... इटली में यह नजारा इन दिनों आम हो चुका है। कोरोनावायरस से फैले डर के बीच मनोबल बढ़ाने के लिए लोग इस तरह के नए-नए तरीके इजाद कर रहे हैं। यहां गीत-संगीत के बीच एक और धुन बड़ी कॉमन हो गई है और वो है एंबुलेंस की आवाज। पिछले कुछ सप्ताह से इटली के प्रमुख शहरों की गलियों में यह आवाज सबसे ज्यादा सुनी जा रही है।

तस्वीर मिलान की है, यहां लॉकडाउन के बाद लोग घरों की बालकनी में गिटार बजा रहे हैं।

इटली में कोरोनावायरस के अब तक27,980 मामले सामने आए हैं। 2,158 लोगों की मौत हो चुकी है। यहां रोम से लेकर नेपल्स और वेनिस से लेकर फ्लोरेंस तक लोगों ने खुद को घरों में कैद कर लिया है। छोटी-बड़ी सभी दुकानें बंद हैं। सरकारी आदेश के बाद सार्वजनिक स्थानों को भी बंद कर दिया गया है। लोगों को भी घर से बाहर निकलने की मनाही है। बहुत जरूरी होने पर ही बाहर निकलने की छूट दी जा रही है। सरकार की इस सख्ती के बावजूद इटली में कोरोना के मामले हर दिन बढ़ रहे हैं, लेकिन एक अच्छी खबर है कि इटली के जिस कोडोग्नो शहर में इसके संक्रमण की शुरुआत हुई थी, वहां अब हालात काबू में हैं। कोडोग्नो पहला शहर था, जिसे लॉक डाउन किया गया था। दो सप्ताह से यहां कोई नया मामला नहीं आया है।

मिलान में भीड़भाड़ वाली सड़कें पूरी तरह से सूनी हैं।

सरकार के फैसले: 3 अप्रैल तक सब बंद, जहां काम बेहद जरूरी वहां सभी सुरक्षा उपाय अपनाने अनिवार्य
प्रधानमंत्री ग्यूसेप कोंटे पूरे इटली में लॉक डाउन की घोषणा कर चुके हैं। ट्रैवल पर भी पाबंदी है। बेहद जरूरी या स्वास्थ्य से जुड़े काम के लिए ही ट्रैवल की अनुमति है। 3 अप्रैल तक दुकानें, बार, पब, रेस्टोरेंट, हेयर ड्रेसर, ब्यूटी सेंटर, होटल और कैंटीन जैसी सभी सुविधाओं को बंद कर दिया गया है। कंपनियों ने कर्मचारियों से वर्कफ्राम होम करवा रही है। स्टॉफ को पेड लीव लेने के लिए भी कहा जा रहा है। बेहद जरूरी चीजें बनाने वाले प्लांट में ही काम चल रहा है, वह भी पूरी सुरक्षा और सतर्कता के साथ।

इटली में दुकानें, बार, रेस्टोरेंट सब बंद। कंपनियों ने कर्मचारियों को घर से ही काम करने के लिए कहा।

गैरजरूरी हर प्लांट और कार्पोरेट सेक्टर बंद कर दिए गए हैं। स्कूलों और यूनिवर्सिटीज में क्लासेस सस्पेंड हैं। छात्र घर से ही ऑनलाइन क्लासेस के जरिए पढ़ाई कर रहे हैं। फुटबॉल लीग भी सस्पेंड हो चुकी है। टेलीविजन चैनल अपने प्रोग्राम के तरीकों में बदलाव ला रहे हैं, ताकि घर में बंद लाखों लोगों को बोरियत से निजात दिला सकें।

बोरियत से बचने का तरीका:सोशल नेटवर्क ही बातचीत का जरिया, सेलिब्रिटिजइसके जरिए सहायता राशि भी जुटा रहे
लोग सोशल नेटवर्किंग के जरिए ही एक-दूसरे से ज्यादा से ज्यादा बातचीत करहैं। वीडियो कॉल पर भीबातें और हंसी-मजाक हो रहे हैं। फेमस सिंगर इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर घर से लाइव कंसर्ट कर रहे हैं, ताकि घर में बैठे लोगों का खुश होने और डर को भूलने का मौका दे सकें। इसके साथ ही चैरिटी प्रोग्राम भी चल रहे हैं। फेमस फैशन ब्लॉगर शीरा फर्रानी ने अपने पार्टनर और फेमस सिंगर फेडेज के साथ मिलकर मिलान के सेंट राफेल हॉस्पिटल के लिए धन जुटाने के लिए चैरिटी शुरू की। कुछ ही घंटो में उनके लाखों फॉलोअर्स ने 3 मिलियन यूरो दान कर दिए। इसी तरह, फैशन डिजाइनर जार्जियो अरमानी ने 1.25 मिलियन यूरो चार हॉस्पिटल और सिविल प्रोटेक्शन सर्विस को दान किए हैं।

बालकनियों में लोगों गाते-बजाते हुए एक-दूसरे का हौंसला बढ़ा रहे हैं।

बालकनी में लोग साउंड लगाकर डांस भी कर रहे हैं।

अस्पतालों का हाल: इंटेंसिव केयर यूनिट में ज्यादातर मरीज बुजुर्ग हैं, यहां भर्ती लोगों की औसत उम्र80.3 साल

इटली में जनसंख्या की औसत उम्र 46.3 साल है। यह जापान के बाद दुनिया का सबसे वृद्ध देश है। यहां उम्रदराज लोगों के ज्यादा होने के कारण भी कोरोनावायरस का असर ज्यादा है। इटैलियन इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ के अध्यक्ष सिलवियो ब्रुसाफेरो कहते हैं, 'इंटेंसिव केयर यूनिट(आईसीयू) में भर्ती लोगों की औसत उम्र 80.3 साल है। ऐसे कुल मरीजों में 25.8% महिलाएं हैं। 70 साल से ज्यादा उम्र के लोग इस बीमारी के ज्यादा शिकार हो रहे हैं, खासकर 80 से 89 साल की उम्र के बुजुर्ग।आईसीयू में रखे गए ज्यादातर मरीज पहले से कम से कम एक पुरानी बीमारी से पीड़ित रहे हैं। जिन लोगों की मौत हुई हैं, उनमें 46 से 47% ऐसे थे, जो 2 से 3 बीमारियों से पीड़ित थे।'

जापान के बाद इटली दुनिया का सबसे वृद्ध देश है, कोरोनावायरस के ज्यादा असर का एक कारण इसे भी माना जा रहा है।

विशेषज्ञों की बात: स्टडी के मुताबिकमामले ऐसे ही बढ़ते गए तो 4000 इंटेंसिव केयर बेड की जरूरत पड़ेगी
इटली में इस वक्त 4000 संक्रमित मरीज इंटेंसिव केयर यूनिट्स में रखे गए हैं। मेडिकल जर्नल 'द लॉन्सेट'में मिलान के मारियो नेग्री इंस्टिट्यूट और यूनिवर्सिटी ऑफ बरगामो की एक स्टडी के मुताबिक, 'अगर इटली में इसी तरह संक्रमण फैलता गया तो अगले कुछ दिनों में 30 हजार से ज्यादा नए मामले सामने आ सकते हैं।'इसमें 15 अप्रैल तक हजारों की संख्या में नए इंटेंसिव और सब-इंटेसिंव केयर यूनिट तैयार करने की जरूरत भी बताई गई है। स्टडी के ऑथर आंद्रिया रमूजी और ग्यूसैपी रेमूजी का कहना है कि, 'कोरोनावायरस के 10% मामलों में मरीजों को इंटेंसिव केयर की जरूरत होगी। जब महामारी अपने चरम पर होगी, तब 4000 इंटेंसिव केयर बेड की जरूरत पड़ सकती है और ऐसी स्थिति अगले 4 हफ्तों में बन सकती है।'

एक स्टडी के मुताबिक अगले 4 हफ्तों में इटली के इंटेंसिव केयर यूनिट में 4 हजार बेड की जरूरत पढ़ सकती है।

देशका हाल:इटली केउत्तरी इलाके में ज्यादा मामले सामने आए, अब दक्षिणी इलाकों में भी यह फैल रहा
इटली का उत्तरी क्षेत्र में महामारी से बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ है। यहां लोम्बार्डी प्रांत में 9820 मामले, क्रिमोना में 1344 और वेनेटो इलाके में 1937 मामले सामने आए। इटली के उत्तरी क्षेत्र के मुकाबले दक्षिणी क्षेत्र में इस महामारी का प्रभाव अब तक कम रहा है। सिविल प्रोटेक्शन डेटा के मुताबिकनेपल्स के केंपानिया इलाके में 220 केस, सिसली में 130, पुगलिया में 129, अबरुजो में 89, मोलिसी में 17, सार्दिनिया में 42, बार्सिलिकाटा में 10 और कैलाब्रिया में 38 मामले सामने आए हैं। हालांकि अब इन क्षेत्रों में भी हर घंटे नए मामले सामने आ रहे हैं। ब्रुसाफेरो बताते हैं, 'दक्षिणी इलाकों में समुद्र तट, स्की रिसॉर्ट और बार्स में अब भी भीड़ दिखती है। यहां वायरस आसानी से फैल सकता है। यहां आ रहे लोगों में अगले कुछ दिनों में कोरोनावायरस के लक्षण दिखना शुरू हो सकते हैं।'

तस्वीर रोम स्थित सेंट पीटर्स स्कॉवयर की है। यह एक हफ्ते से बंद है।

तस्वीर मिलान शहर के डूओमो स्कॉवयर की है। पर्यटक नहीं आने से सूना पड़ा हुआ है।

अर्थव्यवस्था पर असर:अनुमानित जीडीपी ग्रोथ में 0.4 पॉइंट की कमी आ सकती है, सबसे ज्यादा नुकसान पर्यटन को
सुरक्षा के लिए उठाए जा रहे कदमों से इटली की अर्थव्यवस्था पर भी प्रभाव पड़ा है। पर्यटन और निर्यात के क्षेत्र में बड़े नुकसान की संभावना है। एक रिपोर्ट के मुताबिकदेश की जीडीपी ग्रोथ 0.2% से घटकर 0% पर आ सकती है। नवंबर में अनुमानित जीडीपी ग्रोथ में 0.4 पॉइंट की कमी हो सकती है। हालांकि आर्थिक मामलों पर नजर रखने वाली एक सरकारी संस्था के मुताबिक 2021 में जीडीपी ग्रोथ 0.5% पहुंच जाएगी। इस संस्था के मुताबिकमहज इटली नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था खतरे में है। 2007 के बाद यह वायरस दुनियाभर की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगा। इस स्थिति से निपटने के लिए भी सरकार ने यहां आपातकाल के लिए 25 अरब डॉलर का प्रावधान किया है।

मिलान के जो सुपर मार्केट पहले पूरी तरह भरे रहते थे, अब वहां हालात कुछ ऐसे हैं।

रोम में लोगों ने कोरोना पीड़ितों के सपोर्ट में अपने घरों की छतों पर इटली का झंडा लगा रखा है।

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तस्वीर मिलान शहर की है। यहां पिछले एक सप्ताह से सन्नाटा है।


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विभिन्न प्रकार के क्वॉरेंटाइन

शांताराम की गांधीवादी फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ में एक खुली जेल में गुनाह और सजा को नए ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया गया। पारंपरिक जेलखानों में खतरनाक और हिंसा कैदियों को अंडाकार कक्ष में रखा जाता है। कक्ष अत्यंत छोटा होता और उसमें पसरा नहीं जा सकता। राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘संजू’ में अंडाकार कक्ष प्रस्तुत किया गया था। इसी तरह अंग्रेजी में बनी फिल्म ‘शशांक रीडम्पशन’ में भी जेल जीवन पर प्रकाश डाला गया है। कभी-कभी पूरे देश को ही खुली जेल में बदल दिया जाता है। अघोषित आपातकाल भी होता है।


पुरातन आख्यानों में कोप भवन का विवरण है। परिवार का सदस्य अपनी नाराजगी जताने के लिए कोप भवन में बैठ जाता था। मिल-जुलकर समाधान खोजा जाता था। मुगल बादशाह अकबर ने मनुष्य की स्वाभाविक भाषा को जानने के लिए एक ‘गूंगा महल’ बनवाया था, जिसमें सेवक चाकरों को आदेश था कि एक भी शब्द नहीं बोलें। वे जानना चाहते थे कि मनुष्य की स्वाभाविक भाषा क्या है।

‘गूंगा महल’ में जन्मा शिशु, सियार, गीदड़ आदि जानवरों की भाषा बोलने लगा, क्योंकि उसने केवल यही सुना था। सारांश यह है कि मनुष्य अपने आसपास जो भाषा सुनता है, वही भाषा बोलने लगता है।क्वॉरेंटाइन शब्द सुर्खियों में है, इसका शाब्दिक अर्थ तो 40 दिन अलग-थलग रहना है। यह भी एक प्रकार की जेल है। सन् 1918 में ‘इन्फ्लूएंजा’ नामक वायरस से विश्व की 27 प्रतिशत आबादी प्रभावित हुई थी। क्या उस महामारी को पहले विश्व युद्ध का प्रभाव माना जा सकता है?


युद्ध एक समस्या है, उसे समाधान कैसे मान सकते हैं? उस महामारी को जाने क्यों ‘स्पैनिश इन्फ्लूएंजा’ कहा जाता था। संभवत: उस महामारी का प्रारंभ स्पेन में हुआ था। ज्ञातव्य है कि महान लेखक हेमिंग्वे स्पेन के ग्रह युद्ध में स्वेच्छा से शामिल हुए थे। बाद में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि स्पैनिश भाषा में सबसे अधिक मौलिक अपशब्द हैं और इसी भाषा की रक्षा के लिए वे बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तरह कूद गए थे। दक्षिण अफ्रीका में ‘यलो फीवर’ नामक बीमारी के कारण वहां आए हर एक यात्री को अपने देश में वैक्सीनेशन कराना आवश्यक होता है।

वर्तमान समय में भी यह सावधानी वहां बरतनी होती है। कोरोना वायरस की शंका के चलते वहां मेडिकल आइसोलेशन को ही क्वॉरेंटाइन में रखना कहा जा रहा है। इस तरह किसी को अलग-थलग रखा जाना भी एक सजा की तरह होता है, जबकि आपने कोई अपराध नहीं किया है। अगर क्वॉरेंटाइन में रखे व्यक्ति से उसका मोबाइल भी जब्त कर लिया जाए तो उससे सजा काटे न कटेगी। संवादहीनता भी एक भयावह समस्या है। कुछ लोग बिना खाए रह सकते हैं, परंतु बोलने पर लगी पाबंदी सहन नहीं होती।


राजनीतिक सत्ता की हू तू तू में दल बदलने वालों को भी एक तरह के क्वॉरेंटाइन में ही रखा जाता है। उन्हें सबके सामने कैसे लाया जा सकता है। यह संभव है कि इस अंतराल में उनके विचार बदल गए हों। यह खेल मेंढकों को तौलने की तरह कठिन है। लोकसभा और विधानसभाओं में राजनीतिक दल अपने सदस्यों को एक आदेश देती है जिसे ‘व्हिप’ कहते हैं। ‘व्हिप’ का अर्थ है कि कोई अपनी निजी राय नहीं रख सकता।

दरअसल, सारी व्यवस्थाएं व्यक्तिगत स्वतंत्र सोच-विचार के खिलाफ हैं। उन्हें भेड़ें चाहिए, तोते चाहिए या उस तरह के मनुष्य जिन्हें झुनझुने की तरह बजाया जा सकता है। मनुष्य का अवचेतन भी क्वॉरेंटाइन कक्ष की तरह रचा जा सकता है। मशीनों की तरह मनुष्य का उत्पादन भी किया जा सकता है। वैचारिक रेजीमेंटेशन इसी को कहते हैं। एक अदृश्य सा रहने वाला ‘व्हिप’ सदैव जारी रहता है। हवा में सरसराते कोड़ों की आवाज दसों दिशाओं में गूंज रही है।



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कोरोना से घर के वातावरण को प्रभावित न होने दें

मुंबई में पश्चिम रेलवे ने एक प्रयोग शुरू किया है, जिसके परिणामस्वरूप कोरोना वायरस (COVID-19) को फैलने से रोकने में मदद मिल सकती है। सोमवार से वे पिछले एक महीने में चीन, फ्रांस, जर्मनी, ईरान, इटली, दक्षिण कोरिया और स्पेन में यात्रा कर चुके यात्रियों की स्क्रीनिंग करेंगे। अगर उनमें कोरोना के लक्षण दिखते हैं, तो वे मौके पर ही उन यात्रियों के ट्रेन टिकट रद्द कर देंगे। मुंबई सेंट्रल डिवीजन को मुंबई नागरिक प्राधिकरणों से यात्रियों की एक सूची मिली है, जिसमें उन सभी यात्रियों के नाम हैं जो 15 फरवरी तक सूचीबद्ध देशों से आए हैं।

रेलवे इस डेटा का उपयोग यह पता लगाने के लिए करेगा कि क्या लिस्ट में दिए गए यात्रियों में से किसी ने ट्रेन टिकट बुक किया है। रेलवे सूत्रों से बात करके न्यूज चैनलों ने बताया कि ‘लंबी दूरी की ट्रेन के लिए चार्ट कम से कम चार घंटे पहले तैयार किया जाता है। इतना समय ट्रेनों में सवार जोखिम वाले यात्रियों की पहचान करने के लिए पर्याप्त है। सभी टिकट-चेकर्स को निर्देश दिया गया है कि अगर उन्हें कोई भी ऐसा यात्री दिखे, जिसमें कोरोना वायरस के लक्षण हों, तो उस यात्री का टिकट उसी वक्त रद्द करना होगा।’


यह खबर मुझे मेरे एक पड़ोसी के बेटे ने बताई, जो अभी 7वीं कक्षा में पढ़ता है। वो अपने चाचा (अप्रैल में विदेश से आने वाले हैं) को लेकर पूरे परिवार के साथ गर्मियों में रेल यात्रा करने के लिए तैयार था। जब मैंने उससे पूछा कि उसे यह खबर कहां से मिली तो उसने भोलेपन से बताया ‘टीवी से’! वह वायरस के फैलने के कारण चिंतित नहीं था, क्योंकि उसे इसकी ज्यादा समझ नहीं है, लेकिन वह इसलिए चिंतित था, क्योंकि उसकी गर्मी की छुट्टी बर्बाद हो रही है। बच्चों द्वारा टीवी पर देखे जाने वाले समाचार पर नजर रखना माता-पिता की जिम्मेदारी है, ये बच्चे के दिमाग पर गहरे असर और घबराहट का कारण बन सकता है।

इस संक्रमण के डर से युवाओं में चिंता बढ़ती जा रही है। महत्वपूर्ण यह है कि छोटे बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को इससे बुरी तरह से प्रभावित होने से बचाना होगा। वर्तमान स्थिति के कारण पहले ही दुनियाभर में कई सार्वजनिक स्थानों और सामाजिक समारोहों को बंद कर दिया गया है, साथ ही 31 मार्च तक कई भारतीय शहरों में स्कूल भी बंद कर दिए गए हैं। कुछ राज्यों ने सार्वजनिक सभाओं पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया है।

हाई सोसाइटी ने अपने बच्चों को सोसाइटी के भीतर पार्क और खेल के मैदान में भेजना बंद कर दिया है, क्योंकि उन्हें नहीं पता कि हाल के दिनों में कौन-कौन विदेश यात्रा करके आया है। ऐसी स्थितियों में बच्चे 31 मार्च या जब तक स्थितियों पर कुछ स्पष्टता नहीं मिलती, तब तक 24 घंटे, सातों दिन के लिए घर में बंद हैं। उन बच्चों पर बोरियत पहले से ही सवार हो गई है जो लगातार टीवी देख रहे हैं।


बाल विशेषज्ञ का मानना है कि बच्चे अपने आसपास की चीजों को लेकर दिमाग पर बड़ा प्रभाव अनुभव करते हैं। इसलिए माता-पिता की जिम्मेदारी है कि बच्चों के आसपास बेहतर वातावरण बनाए रखें। उन पर कोरोना वायरस की जरूरत से ज्यादा जानकारी का बोझ न डालें। माता-पिता बच्चों को सोशल मीडिया या टीवी के समाचार देखने से रोकने के साथ अलग-अलग तरह की गतिविधियों में व्यस्त रखने का प्रयास करें।

बच्चों को केवल जरूरी जानकारी ही दी जाए। सोशल मीडिया पोस्ट्स के शोर के लगातार संपर्क में आना उचित नहीं है, क्योंकि इससे चिंता पैदा हो सकती है। कुछ स्कूलों ने पहले से काउंसलर की आंतरिक टीम को रणनीति बनाने के निर्देश दिए हैं, जिसमें दोबारा स्कूल खुलने पर छात्रों के मन में उठने वाले किसी भी तरह के प्रश्न का समाधान करने की योजना है।


फंडा यह है कि बच्चों के दिमाग पर कोरोना वायरस के डर के असर को कम करने के लिए उनसे अलग-अलग संवाद और चर्चा करने की जरूरत है, ताकि घर पर सकारात्मक वातावरण बना रहे।



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सादगी दिखाना राजनीतिक कुलीनों की जरूरत

भारतीय जनता पार्टी में प्रवेश के बाद भोपाल में शानदार स्वागत के दौरान ज्योतिरादित्य सिंधिया ने एक स्वीकारोक्ति की। उन्होंने कहा कि मध्य प्रदेश की राजनीति में वह और तीन बार मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान ही ऐसे नेता हैं, जो अपनी कारों में एयर कंडीशनर नहीं चलाते। इस पर तंज कसे गए कि एक महाराजा ऐसा है जो रेंज रोवर से चलता है, लेकिन एसी का प्रयोग नहीं करता, परंतु यह बात महत्वपूर्ण नहीं है।

असल में वह भारतीय राजनीति की एक केंद्रीय हकीकत को स्वीकार कर रहे हैं कि राजनीति में सर्वाधिक शक्तिशाली और समृद्ध से लेकर शाही और ताकतवर उद्योगपति तक हर किसी को मितव्ययी और सादगीपसंद दिखना पड़ता है, भले ही वे किसी चाय वाले की तरह यह दावा न कर पाएं कि वे बहुत ही ‘दीन पृष्ठभूमि’ से आए हैं। बात करते हैं उस चाय वाले की जो भारतीय राजनीति में सबसे चर्चित है।

दरअसल भारतीय राजनीति की इसी हकीकत को रेखांकित करते हुए गीतकार प्रसून जोशी ने 2018 में लंदन में टेलीविजन पर प्रसारित एक बातचीत में उनसे कहा था कि ‘इतनी फकीरी आप में कहां से आई’? इसका सहज और तथ्यात्मक उत्तर होता- क्योंकि मैं फकीरी में पैदा हुआ, मैं इतना गरीब था कि मुझे रेलवे प्लेटफॉर्म पर चाय बेचनी पड़ी। परंतु इससे मकसद पूरा नहीं होता। उद्देश्य यह दिखाना था कि इतना ताकतवर और लोकप्रिय व्यक्ति भी फकीर रह सकता है।


यहां तीन प्रासंगिक बातों का उल्लेख जरूरी है। पहला, हम सत्ताधारी वर्ग से कुलीनता को चाहे जितना जोड़ें, लेकिन हकीकत यह है कि कोई सामंत या महाराजा अब तक सत्ता के शीर्ष पर नहीं पहुंचा। लेकिन, कोई फकीर भी वहां तक नहीं पहुंचा था। नरेंद्र मोदी इकलौते ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने यह उपलब्धि हासिल की। तीसरी बात, एक बार जब एक लोकप्रिय राजा (महाराजा नहीं) को चुना गया, उस वक्त उनका नारा था, ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।’

हम मांडा के राजा स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह की बात कर रहे हैं। क्या हम कह सकते हैं कि भारतीय राजनीति अमीरों या सामाजिक कुलीनों के लिए नहीं है? यह सच है कि बीते सात दशक में हमें ऐसे कुलीनों के तीन नाम तक नहीं मिलते, जो इतने लोकप्रिय हों कि उन्हें किसी राज्य का नेतृत्व सौंपा जा सके। ऐसे दो नाम हैं पंजाब में अमरिंदर सिंह और राजस्थान में वसुंधरा राजे (ज्योतिरादित्य की बुआ)।


बाकी के संदर्भ में देखें तो यहां एक पीढ़ी धूल-मिट्टी से उभरती है और उसके वंशज नए सत्ताधारी कुलीन बन जाते हैं। नेहरू-गांधी परिवार कामगार वर्ग से नहीं था, लेकिन जगजीवन राम, बंसी लाल, शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, करुणानिधि और ऐसे तमाम अन्य नेता ऐसे थे। इनके वंशज सबसे शानदार घड़ियां और चश्मे पहनते हैं, महंगी गाड़ियां चलाते हैं और बेहतरीन पेन रखते हैं। मोदी भी ऐसा करते हैं।

हालांकि, इन सभी को विनम्र दिखना होता है। जब वे यकीन से ऐसा नहीं कर पाते तो उन्हें ऐसी बातें कहनी पड़ती हैं कि वे अपनी कारों में एसी नहीं चलाते। फिर कार चाहे रेंज रोवर ही क्यों न हो। हर दल में ऐसा पाखंड है, इसलिए राहुल गांधी को दलित के घर खाते, मोटर साइकिल पर पीछे बैठे और ढाबे पर भोजन करते या ट्रेन में सफर करते दिखना चाहिए।

फिर क्या हुआ कि जो वे विदेशों में लंबी छुट्टियां बिताते हैं। ज्यादातर राजनीतिक राजकुमारों को दो तरह की जीवनशैली रखनी होती है। मतदाता इस सच्चाई से अवगत हैं, लेकिन उन्हें यह पसंद है। राजनीति में नेता की विनम्रता कारगर हथियार है। हम बहुत अमीर लोगों पर ज्यादा यकीन नहीं करते।


हमारी राजनीति हमेशा से ऐसी ही थी। सरकारी स्कूलों की किताबों में जवाहरलाल नेहरू के बारे में पढ़ाया जाता है कि वह इतने अमीर परिवार से आते थे कि उनके कपड़े ड्राईक्लीन होने स्विट्जरलैंड जाते थे। परंतु असल जोर इस बात पर था कि उन्होंने यह आराम त्यागा और जेल गए। इससे एक नया मॉडल सामने आया कि भले ही आप साधारण परिवार से नहीं आते, लेकिन यदि आपको राजनीति में कॅरियर बनाना है तो आप इसका मुखौटा ओढ़ सकते हैं।

लाल बहादुर शास्त्री ही असली जननेता माने जाते थे, जो अपने पीछे परिवार के लिए एक पुरानी फिएट कार और चुकाने के लिए सरकारी कर्ज छोड़ गए थे। कुलीनता के आक्रामक विरोध के कारण बाद के दशकों में गरीबी को एक गुण के रूप में पेश किया गया।


मैंने यूपीए के शासन काल में सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के निर्धनतावाद का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि ‘गरीबी मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि आप गरीब रहें।’ शायद ऐसा करना मुझे रोमांचक लगा हो, लेकिन इससे मेरा ही मजाक उड़ा। एक खास किस्म का लोकलुभावनवाद आज हमारी राष्ट्रीय विचारधारा है।

मोदी से लेकर राहुल तक और मार्क्सवादियों से लेकर मोहन भागवत और ममता बनर्जी से लेकर दिलीप घोष तक सभी इस पर सहमत हैं। हर कोई चाहता है कि वह कम से कम अमीर नजर आए और अपनी राजनीति अमीरों को नुकसान पहुंचाने के भ्रम के इर्दगिर्द तैयार करे। इससे गरीबों को परपीड़ा का सुख मिलता है। जब किसी देश में आर्थिक विचारधारा को लेकर इतनी एकरूपता हो तो वह कहां जाएगा? ऐसे में देश में दो ही धारणाएं बची हैं। सामाजिक विभाजन वाली या फिर व्यक्ति केंद्रित।

ऐसे में भारतीय राजनीति में जोर इस बात पर है कि कौन अधिक समाजवादी दिख सकता है। आज मोदी इस मामले में बाकियों से बहुत आगे हैं। इसलिए आज भारत उस स्थिति में है, जिसका मजाक उड़ाते हुए अर्थशास्त्री राज कृष्ण ने इसे हिंदू विकास दर करार दिया था। यह 1970 के दशक की राजनीति की तरह झूठी खुशहाली है। नरसिंह राव-मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी के शासन में सीमित समय के लिए हमने जो भी देखा, वह एक भटकाव भर था।(यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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ज्योतिरादित्य सिंधिया और शिवराज सिंह चौहान।


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कोरोना के बहाने सरकार बचाने से पुराने सवाल जिंदा

मध्य प्रदेश में सोमवार को शक्ति परीक्षण न हाेने और 26 मार्च तक सदन स्थगित किए जाने से नाराज राज्यपाल ने मुख्यमंत्री कमलनाथ को मंगलवार को बहुमत साबित करने काे कहा है। राज्यपाल ने कह दिया है कि अगर कमलनाथ ऐसा नहीं करते हैं तो यह माना जाएगा कि उनके पास बहुमत नहीं है। सोमवार को राज्यपाल के अभिभाषण के तत्काल बाद स्पीकर ने सदन की बैठक इस आधार पर स्थगित कर दी कि कोरोना का संकट है। भारत में सरकारों को बचाने के लिए संवैधानिक संस्थाओं पर बैठे लोगों की अपनी पार्टी के प्रति वफादारी के लिए दिए गए तर्कों में किसी रोग या महामारी की भूमिका का यह पहला उदाहरण है।

बहरहाल, कोरोना ने सोमवार को कमलनाथ की सरकार बचा ली। उधर, राज्यपाल की समस्या यह थी कि जिस सरकार को मात्र 12 घंटे पहले वे सदन पटल पर बहुमत साबित करने का संदेश दे चुके हैं, उसी सरकार द्वारा लिखे गए अभिभाषण को, जिसमें परंपरागत रूप से बार-बार ‘हमारी सरकार’ का जुमला आता है, कैसे बोलें? इसी वजह से उन्होंने चंद शब्दों में अभिभाषण पढ़ा और चले गए। संविधान निर्माताओं ने शायद सोचा नहीं होगा कि सात दशक बाद भारत में राजनीतिक वर्ग की नैतिक स्थिति कहां तक गिर चुकी होगी।

चुने हुए ‘माननीयों’ को महंगे रिसोर्ट्स व पांच सितारा होटलों में सिर्फ इस डर से छिपाया जाएगा, क्योंकि विपक्षी पार्टी उन्हें खरीद न ले। संविधान के अनुच्छेद 175(2) के तहत राज्यपाल ने संदेश दिया था कि सरकार बहुमत सिद्ध करे। इसके तहत सदन के ‘सुविधानुसार शीघ्रता से’ विचार करने का प्रावधान है। अब यह स्पीकर पर निर्भर था कि वह कोरोना को ‘असुविधा’ मानते हैं या नहीं और ‘शीघ्रता’ की उसकी अपनी परिभाषा कुछ घंटे है या कुछ हफ्ते। संविधान में एक और बड़ी विसंगति है।

अनुच्छेद 192 के तहत किसी सदस्य को अयोग्य घोषित करने का अधिकार राज्यपाल का होता है, लेकिन वहीं 10वीं अनुसूची (दल-बदल कानून) के अनुसार यह अधिकार स्पीकर का है। कर्नाटक विधानसभा के एक मामले में कुछ हफ्ते पहले सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस रमन्ना ने कहा था कि स्पीकर का अस्तित्व विधायिका में बहुमत पर आधारित होता है, लिहाज़ा उस पर सदस्यों की योग्यता को लेकर फैसले का अधिकार देना गलत है, क्योंकि वह निष्पक्ष नहीं रह सकता और न्यायाधिकरण की तरह निष्पक्षता उससे संभव नहीं है।



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मध्यप्रदेश के राज्यपाल लालजी टंडन और स्पीकर एनपी प्रजापति।


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संकल्प लें, आगे हमसे कुछ गलत न हो

पश्चाताप करना मनुष्य का स्वभाव है। कुछ लाचार होकर प्रायश्चित करते हैं और कुछ संकल्पित होकर। पिछले दिनों मुझे प्रवचन देने एक जेल में जाना पड़ा। श्रोताओं के रूप में जितने चेहरे मेरे सामने थे, हर एक की कोई कहानी थी। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने उन बंदियों से कहा- आप लोग यहां पुलिस के कारण हैं।

कोई सही आया, कोई गलत आया, लेकिन जब आ चुके हो तो आगे किस मनोविज्ञान से जीना है, यहां आपकी भूमिका शुरू होती है। मैंने आश्वस्त किया कि जिंदगी यूं खत्म नहीं होती। हो सकता है यह भी एक पड़ाव हो, तो क्या किया जाए? लंका के युद्ध के दौरान जब मेघनाद यज्ञ कर रहा था तो रामजी ने वानरों से कहा लक्ष्मण के साथ जाओ और यज्ञ का विध्वंस कर दो।

यही पुलिस की भूमिका है। पुलिस का काम अपराधियों को पकड़ना, गलत कृत्य को नष्ट करना है। लेकिन उसके बाद राम एक बात और कहते हैं- ‘मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छिजै निसिचर सुनु भाई।।’ हे भाई, उसे ऐसे बल-बुद्धि से मारना जिससे निशाचररूपी बुराई का नाश हो।

राम की यह बात जेल बंदियों के लिए काम की है। यहां आने के बाद अपने भीतर के अपराधी को बदल लेना चाहिए। नीचे के कानून-व्यवस्था से बचने के तो तरीके हैं, लेकिन ऊपर वाले की अदालत में जब फैसला होगा तब कोई प्रभाव काम नहीं करेगा। इसलिए प्रायश्चित और संकल्प लीजिए कि कुछ गलत हुआ है तो फिर आगे कभी नहीं करेंगे।



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प्रतीकात्मक फोटो।


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जनसेवा के लिए रिसॉर्ट में मुश्किल दिन काट रहे हैं नेता

कान में एयरपॉड, हाथ में रेंज रोवर का स्टीयरिंग, मंजिल अमित शाह का बंगला। ‘महाराज’ ज्योतिरादित्य सिंधिया की यह तस्वीर मध्यप्रदेश की राजनीतिक उथल-पुथल का पहला प्रत्यक्ष प्रमाण थी। पर्दे के पीछे तो भूमिका लंबे अर्से से लिखी ही जा रही थी। रेंज रोवर का एसी ऑन था या नहीं यह वीडियाे से पता नहीं चल रहा था। शिवराज और खुद के ‘विचारों’ की ‘धारा’ एक होने का सबसे बड़ा प्रमाण सिंधिया ने यही दिया था कि दोनों बिना एसी चलाए गाड़ी में बैठते हैं।


भाजपा जॉइन करने के बाद चेहरे पर चिंता लाते हुए सिंधिया बोले- कांग्रेस पार्टी बदल चुकी है। इसके जरिये जनसेवा संभव नहीं है। कांग्रेस-भाजपा की दशकों की ‘सेवा’ के बाद मध्यप्रदेश के 2 करोड़ 34 लाख ‘जन’ आज गरीबी रेखा के नीचे हैं। उत्तर प्रदेश-बिहार को छोड़ दें तो देश में सबसे ज्यादा।

इधर, कांग्रेस के सिंधिया समर्थक, बागी विधायक-मंत्री बेंगलुरु सिटी से ठीक 40 किमी दूर 700 एकड़ में फैले गोल्फसायर रिसॉर्ट में पांच सितारा सेवाओं का आनंद ले रहे थे। मध्यप्रदेश की गरीब जनता के ये समृद्ध, स्टार प्रतिनिधि रिसॉर्ट में ‘सुरक्षित’ रहें इसके लिए 400 पुलिसकर्मी तैनात किए गए थे। सुरक्षा वाकई मध्यप्रदेश के लोगों की बड़ी चिंता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूराे के आंकड़े बताते हैं कि 2017 में देश में सबसे ज्यादा 5 हजार 562 दुष्कर्म के मामले मध्य प्रदेश में सामने आए।


रिसॉर्ट में सिंधिया समर्थकों की दैनिक जरूरतें पूरी करने का जिम्मा उनके नजदीकी पुरुषोत्तम पाराशर को दिया गया था। इन मूल सुविधाओं के तहत हर विला में पर्सनल स्वीमिंग पूल और गोल्फ का मैदान भी था। मूल जरूरतों के मायने मध्यप्रदेश के लोगों से बेहतर कौन समझेगा। पिछले बजट से पूर्व प्रस्तुत किए गए आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया कि राज्य में सिर्फ 23 प्रतिशत घरों में नल से पानी आता है। केवल 30 प्रतिशत लोग खाना बनाने के लिए स्वच्छ ईंधन का प्रयोग वहन कर पा रहे हैं।


शिक्षा सूचकांक में 12वें नंबर पर अटका मध्य प्रदेश प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी राष्ट्रीय आंकड़े 1 लाख 26 हजार 699 के मुकाबले 90 हजार 998 रुपए ही है। कृषि मजदूरी की दर 210 रुपए देश के अन्य राज्यों की तुलना में न्यूनतम है। मनरेगा में 68.25 लाख परिवार दर्ज हैं। गरीब अफ्रीकी देशों जैसे कृषकाय कुपोषित बच्चों के फोटो इस गजब प्रदेश की अजब दुखांतिकाएं कहते आए हैं।

आठ साल के बच्चे की भूख के कारण मौत जैसी सुर्खियां भी मध्य प्रदेश डेटलाइन से छपती आई हैं। खैर... कांग्रेस के जयपुर में रुके, भाजपा के 106 विधायक गुड़गांव से 40 किमी दूर पटौदी में आईटीसी ग्रैंड भारत होटल में ठहरे थे। इन विधायकों की देख-रेख में जुटे राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने कहा- हम तो यहां छुटि्टयां मनाने के लिए आए हैं। सब फेस्टिव मूड में हैं।


पार्टी से टूटने, जुड़ने, साथ देने, छिटकने वाला हर व्यक्ति कह रहा है कि वह मध्यप्रदेश की गरीब, किसान, माफिया पीड़ित जनता की सोचकर ही टूट-छूट-जुड़ रहा है। हो सकता है ऐसा ही हो। एसी रिसॉर्ट और बिना एसी की गाड़ियों के इस गंभीर चिंतन को शायद आम आदमी समझ नहीं पा रहा हो। यूं ही वह इसे राजनीतिक-आर्थिक महत्वाकांक्षा का ओछा खेल बता रहा हो। आखिर उसे क्या समझ, जनादेश देने के अलावा उसने किया ही क्या है?



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होटल ग्रेसेस के बाहर खड़ी बसें जिनमें भाजपा के विधायक यहां लाए गए।


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घुसना आसान है, बने रहना बहुत मुश्किल

इस शनिवार की रात एक्टर अक्षय कुमार रोहित शेट्‌टी की फिल्म ‘सूर्यवंशी’, जो अभी रिलीज होनी है, को प्रमोट करने के लिए कपिल शर्मा के टीवी शो में पहुंचे थे। अपने चिरपरिचित अंदाज में कपिल ने उनकी खिंचाई करते हुए पूछा- आपकी हर फिल्म बॉक्स ऑफिस कलेक्टर रही है, लेकिन इस फिल्म से आप कितना कलेक्ट कर रहे हैं? यह एक सीधा सवाल था, लेकिन अक्षय ने पूरी विनम्रता से जवाब दिया- ‘चल जाना चाहिए’, साथ ही जोड़ा- बॉलीवुड में घुसना आसान है, लेकिन लंबे समय तक वहां टिके रहना सबसे मुश्किल चैलेंज है।


उनका यह बयान पूर्ण सत्य है। और सिर्फ बॉलीवुड ही क्यों, हर पेशे की सच्चाई यही है। 13 साल की आशी हंसपाल को ही लें, जो पुरुष वर्चस्व वाले मोटरस्पोर्ट में अपना दम दिखा रही हैं। लोग उनसे पूछते हैं- इतनी छोटी उम्र में पेशेवर तौर पर रेस कैसे लगाती हैं। नेशनल कार्टिंग 2019 सीजन में पांच पोडियम फिनिश के लिए उन्हें हाल ही में फेडरेशन ऑफ मोटर स्पोर्ट्स क्लब्स ऑफ इंडिया के सालाना अवॉर्ड्स में ‘आउटस्टैंडिंग विमेन इन मोटरस्पोर्ट्स-2019’ से नवाजा गया है।


आशी के पिता एक रैली ड्राइवर रहे हैं। करीब एक साल पहले आशी ने शौक के तौर पर मोटरस्पोर्ट शुरू किया। बीते नौ महीनों में ही यह जुनून बनकर उभरा और आशी को पेशेवर रास्ते पर ले गया। बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल, मुंबई की छात्रा आशी को इस छोटी उम्र में भी अच्छी तरह पता है कि दिमाग को शांत कैसे रखना है और रेसिंग ट्रैक पर उतरते वक्त आक्रामकता कैसे लानी है। क्या आपको पता है कि एक्सीलेटर पर पैर रखने से पहले उसे किस चीज का डर सताता है- लोगों का।


रेस के पहले प्रतिभागियों को शांत रखने के लिए आमतौर पर परिवार साथ होते हैं, लेकिन आशी को यह पसंद नहीं, क्योंकि लोग काफी सवाल पूछते हैं। सलाह देते हैं और बातें ही करते रहते हैं, इसलिए रेस पूरी होने तक उसे लोगों से दूर रहना ही पसंद है, ताकि उसका दिमाग शांत बना रहे। इसे ‘कंडीशनिंग’ कहते हैं, जो कई सीनियर आजमाते हैं, लेकिन एक 13 साल की बच्ची का ऐसा करना वाकई काबिले तारीफ है।

आप जानते हैं वह कितना व्यस्त रहती है? इस साल वह 25 प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेगी, जिसमें नेशनल कार्टिंग चैंपियनशिप भी शामिल है। हालांकि, उसका सपना है फॉर्मूला वन। याद रखें ‘कंडीशंड लोग’ कुछ उसूलों और अनुशासन के दम पर ऐसा कर पाते हैं। जैसे अक्षय कुमार एक साल में चार-पांच फिल्में कर लेते हैं, जबकि कुछ ऐसे भी हैं जो चार साल में एक ही फिल्म करते हैं।


एक और इंसान हैं, 58 साल के सुनील शेट्‌टी, जिनकी मैं कद्र करता हूं। हिंदी फिल्मों में भले अब उनका वह मुकाम न रहा हो, लेकिन दक्षिण में वह नाम कमा रहे हैं। हाल ही में उन्होंने दो फिल्मों में रजनीकांत के साथ स्क्रीन शेयर किया। जल्द ही वह मोहनलाल की एपिक पीरियड वॉर फिल्म में भी नजर आएंगे। जब सेहत की बात हो तो दक्षिण की युवा पीढ़ी स्वस्थता और अनुशासन के लिए सुनील का सम्मान करती है।
हिंदी फिल्मों में अक्षय और दक्षिण की फिल्मों में सुनील में एक बात एक समान है, दोनों को ही दमदार पुलिसवालों के रोल मिलते हैं।

दोनों एक वक्त में कई फिल्में करते हैं, लेकिन कभी शिकायत नहीं करते। अगर सुनील लिगामेंट जख्मी होने के बावजूद 17 फिल्में करते हैं तो अक्षय ‘सूर्यवंशी’ और एक एड फिल्म की शूटिंग के लिए बाइक से दो सेट पर जाते थे, वह भी बगैर कुछ खाए। खास बात यह है कि दोनों निर्माताओं को यह भनक भी नहीं लगने देते कि उन्होंने पूरे दिन कुछ नहीं खाया है। इसे कहते हैं समर्पण, आप जिस मुकाम पर हैं, वहां बने रहने के लिए बहुत ही जरूरी है समर्पण।


जानते हैं सुनील को अपने बेटे अहान, जो मिलन लूथरिया की ‘आरएक्स100’ की रीमेक से फिल्मों में कदम रखने वाले हैं, के लिए क्या चिंता सताती है? पिता को लगता है कि बेटा सफलता को तो पचा लेगा, लेकिन असफलता से कैसे निपटेगा।

फंडा यह है कि आप जहां हैं, वहां बने रहने के लिए आपको कुछ उसूल, अनुशासन, दिनचर्या अपने जीवन में उतारनी होगी। क्योंकि किसी भी इंडस्ट्री में घुसना आसान है, लेकिन वहां बने रहना बहुत मुश्किल है।



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Easy to penetrate, very difficult to keep up


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वहां सैनिटाइजर्स के लिए लोगों ने सुपर मार्केट की अलमारियां छान मारी थीं

श्रीनगर. कश्मीर के बांदीपोरा के रहने वाले उमर सुहैल चीन के जिलिन शहर की बिहुआ यूनिवर्सिटी से एमबीबीएस कर रहे हैं। 21 जनवरी की सर्द रात में जब उनके पास एक फोन कॉल आता है तो वे पसीने से तरबतर हो जाते हैं। इस कॉल में उन्हें चीन में फैल रहे कोरोनावायरस के बारे में जानकारी दी जाती है। उन्हें यह भी बताया जाता है कि वे जिस यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे हैं, वायरस का संक्रमण उस ओर भी बढ़ रहा है। इस फोन कॉल के 10 दिन बाद ही उमर अपने घर आ जाते हैं,लेकिन ये 10 दिन और घर आने के बाद अगले 14 दिन उन्होंने कैसे गुजारें, शायद उन्हें जिंदगीभर याद रहने वाला है।

पूरे शहर में अशांति फैल गई थी: उमर

उमर बताते हैं,‘‘मैंने देखाहै कि उन दिनों में जिलिन शहर के सुपर मार्केट कितनी तेजी से खाली होने लगे थे। यह भी देखा है कि पूरे शहर में कैसे एकदम अशांति सी फैल गई थी। लोगों ने सुपर मार्केट की अलमारियों को छान मारा था। खाने-पीने के सामान और सैनिटाइजर्स इकट्ठा करने की होड़ मची हुई थी। मुझे याद है कि भारत लौटने से पहले किस तरह मैं सैनिटाइजर और मास्क के लिए लोगों के सामने हाथ फैला रहा था। बड़ी मुश्किल से मुझे एक बोतल सैनिटाइजर मिल पाया था।”

जब हर जगह बंद होने लगी और खाने-पीने के सामान की कमी होने लगी, तभी उमर ने घाटी में लौटने का फैसला लिया। 30 जनवरी को उन्होंने शंघाई से फ्लाइट पकड़ी और 1 फरवरी को भारत पहुंच गए। यहां पहुंचते ही उनका चेकअप किया गया। उनके परिवार के सदस्यों ने भी उनके आते ही सवालों की बौछार शुरू कर दी। उमर बताते हैं कि “एयरपोर्ट पर स्क्रिनिंग स्टॉफ ने उन्हें स्वस्थ पाया था, लेकिन जैसे ही वे अपने घर पहुंचे, बांदीपोरा के हॉस्पिटल से डॉक्टर्स की टीम आई, चेकअप किया और मुझे घर पर ही 14 दिन तक क्वारैंटाइन (कोरोनावायरस के संदिग्ध मरीजों को अलग रखना) कर दिया गया।”

उमर के लिए असल चुनौती क्वारटाइन पीरियड के साथ शुरू हुई। उन्हें किसी से भी मिलने की मनाही थी, वे परिवार के सदस्यों के साथ खाना भी नहीं खा सकते थे। उमर बताते हैं, "पड़ोसी और रिश्तेदार हर दिन मेरेघर आते और मां से पूछते कि क्या मैं ठीक हूं? उनके लगातार आने और बार-बार एक ही सवाल पूछने से मुझे भी ये लगने लगा था कि मैं एक जानलेवा इंफेक्शन का सोर्स हो गया हूं।"

उमर इंटरनेट की धीमी स्पीड की ओर इशारा करते हुए उदासी भरी आवाज में बताते हैं कि “सभी तरह की नकारात्मकता से दूर होने के लिए मैं अपना पूरा टाइम पढ़ाई में देना चाहता था, लेकिन इंटरनेट की 2G स्पीड के चलते ये भी संभव नहीं हो सका। मुझे अपनी ऑनलाइन क्लासेस भी छोड़नी पड़ी।”

इन्फेक्शन के डर से रात-रातभर नींद नहीं आती थी: खुशबू

चीन के हिलोंगजिआंग प्रांत की कीकीहार यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रही खुशबू राथेर की भी कहानी कुछ ऐसी ही है। उनके प्रोफेसर ने उन्हें कई बार डोरमेट्री रूम से बाहर न निकलने की सलाह दी। बांदीपुरा क्षेत्र के चट्टी बांदी इलाके की रहने वाली खुशबू अभी 21 साल की हैं। वे उन दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि कैसे उन्हें इन्फेक्शन के फैलने के डर से रात-रात भर नींद नहीं आती थी।

खुशबू बताती हैं, "टीचर हमे ट्रिपल लेयर मास्क पहनने के लिए कहती थीं। वे हर घंटे हमारेबॉडी टेम्परेचर को मॉनिटर कर रहीथीं। उन दिनों हम सभी एक-दूसरे से कुछ सवाल बार-बार पूछ रहे थे- अगर हममें से कोई एक संक्रमित निकला तो क्या होगा? क्या हम जिंदा बच पाएंगे? क्या हमारा परिवार हमें फिर से देख पाएगा? क्या यहीं अंत है? हम चीनी भाषा नहीं जानते, अगर हमें क्वारैंटाइन किया गया तो हम उन लोगों से कैसे बात करेंगे?"

वायरस के तेजी से फैलने के डर से खुशबू ने 5 फरवरी को भारत आने का फैसला लिया। वे बताती हैं कि, “गुआंगझू से मेरी फ्लाइट थी। वहां कई ऐसे लोग थे, जो संक्रमित थे। मुझे लगातार यही डर सता रहा था कि मैं शायद सुरक्षित घर नहीं पहुंच पाऊंगी।"

खुशबू 7 फरवरी को श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतरीं। स्क्रिनिंग के बाद उन्हें फौरन चेक अप के लिए ले जाया गया। वे बताती हैं कि “चेकअप में कोरोनावायरस का कोई लक्षण नजर नहीं आया। मुझे पूरी तरह से स्वस्थ बताया गया था, लेकिन एहतियात के तौर पर मुझे घर पर क्वारैंटाइन कर दिया गया।"

खुशबू को जब घर लाया गया, तो उनके भाई-बहन और रिश्तेदार उन्हें डर और कुछ तिरस्कार की नजर से देखते थे। वे बताती हैं कि, “मुझे अपने कमरे से बाहर आने की इजाजत नहीं थी। खाना भी परिवार के साथ नहीं खा सकती थी। मुझे बहुतही बुरा लगता था।"

पढ़ाई में आए इस ब्रेक से खुशबू थोड़ी परेशान भी नजर आती हैं। वे कहती हैं कि, “हमारा तीसरा सेमेस्टर अभी शुरू ही हुआ था। हम अपने नए विषयों को लेकर बेहद उत्साहित थे और अब मैं यहां हूं अकेले, सभी से अलग-थलग, जहां से वापसी की कोई उम्मीद भी फिलहाल नजर नहीं आती।"

कश्मीर में अब तक 1433 लोगों को क्वारैंटाइन किया गया

एक आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक, श्रीनगर एयरपोर्ट पर अब तक करीब 28 हजार 525 यात्रियों की स्क्रिनिंग हुई है। इसके मुताबिक कुल 1433 लोगों को होम क्वारैंटाइन किया गया है। डेटा के मुताबिक कश्मीर से 23 सैम्पल लिए गए हैं, इनमें से 20 नेगेटिव मिले हैं। अब तक कश्मीर में कोरोनावायरस का एक भी पॉजिटिव सैम्पल नहीं मिला है, लेकिन यहां लोग दुनियाभर में इस वायरस से हो रही मौतों से चिंतित हैं।

प्रशासन ने निगरानी और कंट्रोल सिस्टम मजबूत किया

जम्मू और कश्मीर प्रशासन कोरोनावायरस के लक्षणों की पहचान के लिए और इसके फैलते संक्रमण से तुरंत निपटने के लिए लगातार तैयारी बेहतर कर रहा है। प्रशासन ने निगरानी और कंट्रोल सिस्टम को मजबूत किया है। केन्द्र शासित प्रदेश (+91-0191-2549676), जम्मू डिवीजन (+91-0191-25220982) और कश्मीर डिवीजन (+91-0194-2440283) के लिए अलग-अलग हेल्पलाइन नम्बर जारी किए गए हैं। इसके साथ हीश्रीनगर एयरपोर्ट और राष्ट्रीय राजमार्ग जम्मू और कश्मीर में स्क्रीनिंग के लिए अतिरिक्त प्रशिक्षित कर्मचारियों को रखा गया है। सनत नगर में एक आइसोलेशन सेंटर बनाया गया है, अलग-अलग जिलों में क्वारैंटाइन फैसेलिटी को बढ़ाया गया है, ताकि संदिग्ध मामलों को तीसरे स्तर के केन्द्र पर सीधे लाने की बजाय लोगों को इन्हीं क्वारैंटाइन में रखा जाए।



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उमर सुहैल चीन से एमबीबीएस कर रहे हैं। वे 1 फरवरी को भारत लौटे हैं।- फाइल


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संकट में अपनी जिंदगी की जिम्मेदारी खुद लें

डर ने मेरे शहर मुंबई को जकड़ लिया है। जब दस पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हमारे शहर पर हमला किया था और पॉइंट ब्लैंक रेंज पर कई सौ निर्दोष लोगों को मार डाला था, तब भी मेरा शहर निडर होकर सामान्य तरीके से रोजमर्रा के काम कर रहा था। लेकिन 2020 के कोरोना वायरस का मामला अलग लग रहा है। भारत में गुरुवार को कर्नाटक में पहली मौत की रिपोर्ट आई और मुंबई में पिछले तीन दिनों में हर गुजरते दिन के साथ कोरोना वायरस के नए मामलों की रिपोर्ट आ रही हैं।


लोगों के कपड़े पहनने का तरीका बदल चुका है। मेरे फैशन से प्रेरित शहर में, दस्ताने और मास्क पहने लोग, कैजुअल कपड़े पहने लोगों की तुलना में अधिक देखे जा रहे हैं। गुरुवार और शुक्रवार को सड़क पर ऑटो रिक्शा और टैक्सियों में कम भीड़ देखी गई, जबकि व्यस्त रेलवे स्टेशनों में कम से कम चार लोग हर घंटे एस्केलेटर के हैंडल की सफाई करते देखे गए।

जबकि एस्केलेटर पर यात्रा करने वाले कुछ भी छू नहीं रहे हैं, एक नया सलीका जो पिछले 48 घंटों में मुंबईकरों में देखने को मिला। कई सार्वजनिक कार्यक्रमों के रद्द होने के साथ-साथ फिल्म ‘सूर्यवंशी’ की रिलीज और सिने पुरस्कार भी रुक गए। मतलब मुंबई ने सचमुच ‘पैनिक बटन’ दबा दिया है। लेकिन समय की मांग है कि हम सावधानी बरतें, न कि हजारों और लोगों को मुसीबत में डाल दें।


शहर के नागरिक निकाय द्वारा एक बहुत अच्छा निर्णय लिया गया, जिसके तहत शुक्रवार को 700 बेड का अस्पताल एक साल बाद दोबारा खोला गया, जो नागरिक निकाय को प्रॉपर्टी टैक्स का भुगतान नहीं करने की वजह से बंद कर दिया गया था। तेरह महीने से बंद ‘सेवन हिल्स’ अस्पताल को मुंबई के सबसे बड़े क्वारंटीन (संगरोध) केंद्र के रूप में तुरंत इस्तेमाल करने का सुझाव दिया गया था। ये सुझाव देने वाले और कोई नहीं महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे थे। ऐसा करने से शहर के कई नागरिक अस्पतालों को बड़ी राहत मिल सकती है।

एक नई टीम बनाई गई है जो शुक्रवार से बंद अस्पताल को तत्काल चालू करने के लिए जुटेगी। बिजली, पानी, दवाओं और आपातकालीन वस्तुओं जैसी विभिन्न सुविधाओं के आपूर्तिकर्ता भी जरूरतों को पूरा करने के लिए टीम में शामिल होंगे। मुंबई जैसे बड़े शहर में प्रति दिन 300 सैंपल का परीक्षण करने के लिए केवल एक केंद्र है। इसलिए शहर प्रत्येक 1000 ब्लड सैम्पल्स का परीक्षण करने के लिए प्रत्येक स्थान पर ऐसी दो और केंद्रों को जोड़ने की योजना बना रहा है। शुक्रवार दोपहर महाराष्ट्र के सभी स्कूलों को बंद रखने के लिए भी कह दिया गया है।


कुछ सहकारी सोसाइटीज ने प्रवेश द्वार पर वॉशबेसिन रखना शुरू कर दिया है। बिल्डिंग में प्रवेश करने से पहले सभी को अपने हाथ धोने के लिए कहा जा रहा है। जिन लोगों ने मास्क लगा रखा है, उन्हें प्रवेश करने दिया जाता है। बाकी लोगों को कहा जाता है कि वे सामान चौकीदारों के पास छोड़ जाएं, जिनका है, उन्हें दे दिया जाएगा। सोसायटी के यात्रा कर रहे सभी लोगों को सूचीबद्ध कर स्वास्थ्य जांच करने के लिए कहा जा रहा है। पुणे में किसी भी परिसर में प्रवेश से पहले सभी मिलने वाले और कर्मचारियों के लिए फेस मास्क पहनना और हाथ धोना अनिवार्य कर दिया गया है।

स्वास्थ्य अधिकारियों और हेल्पलाइन नंबरों के संपर्क विवरण नोटिस बोर्ड पर लगाए जा रहे हैं, जबकि वॉट्सएप के माध्यम से सभी सोसाइटी के सदस्यों को क्या करें और क्या न करें, इसके बारे में बताया जा रहा है। सोसाइटी के सदस्य स्पष्ट रूप से चाहते हैं कि वे उस दिन का इंतजार न करें जब दूसरे सदस्यों को बंद कर दिया जाए या अस्पताल ले जाकर अलग कमरे में रखा जाए।

फंडा यह है कि मुंबई शहर की तरह ‘पैनिक बटन’ दबाने का इंतजार न करें। जब कोई संकट आता है, तो प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक समूह को जिम्मेदारी संभालनी पड़ती है, बिना यह सोचे कि दूसरे इसके बारे में क्या कहेंगे।



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द्ररावपथी, दरबार और संस्कार

दक्षिण भारत में अल्प बजट में बनी गैर सितारा फिल्म ‘द्ररावपथी’ ने पहले दिन ही अपनी पूंजी वसूल कर ली। गौरतलब है कि इसी फिल्म के साथ ‘दरबार’ नामक सुपर सितारा फिल्म का प्रदर्शन भी हुआ था, परंतु उसे उतने दर्शक नहीं मिले। बॉक्स ऑफिस पर यह प्रकरण दीए और तूफान के बीच का सा द्वंद्व बन गया। ऐसा कई बार हुआ है कि अल्प बजट की सिताराविहीन फिल्में सफल रही हैं। अमिताभ बच्चन के दौर में अमोल पालेकर की फिल्मों ने भी लाभ कमाया है।

यश चोपड़ा की अल्प बजट की फिल्म ‘नूरी’ की कमाई से उनकी बहु सितारा फिल्म ‘काला पत्थर’ के घाटे की भरपाई हुई। दरअसल संगीतकार खय्याम साहब ने नूरी का अकल्पन किया था। उन्हें फिल्म मुनाफे का भागीदार भी बनाया गया था। उनको शिकायत रही कि बंदरबांट के कारण उन्हें अपना पूरा लाभांश प्राप्त नहीं हुआ। खय्याम साहब इतने सरल थे कि उन्हें ज्ञात ही नहीं था कि मुनाफा भी ललाट देखकर तिलक लगाने की तरह होता है।


इस प्रकरण में सबसे अधिक चिंताजनक तथ्य यह है कि अल्प बजट की सफल फिल्म अंतरजातीय प्रेम विवाह की मुखालफत करती है। फिल्म में संदेश है कि उच्च जाति की कन्या सोच-समझकर प्रेम करे। हिदायत दी गई है कि दलित वर्ग के युवा से दूरी बनाए रखे। फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर प्राप्त अपार सफलता यह तथ्य रेखांकित करती है कि अवाम भी संकीर्णता का हामी है। निदा फाजली ने संकेत दिया था कि मौला बच्चों को गुड़-धानी दे, सोच-समझ वालों को थोड़ी सी नादानी दे।

आज अवाम संकीर्णता के पक्ष में खड़ा दिख रहा है। मराठी भाषा में बनी फिल्म ‘सैराट’ में प्रस्तुत किया गया कि अंतरजातीय प्रेम विवाह करने वालों को उन दोनों के परिवार के सदस्यों ने ही मार दिया था। ‘सैराट’ के अंतिम दृश्य में उन दोनों का अबोध शिशु जीवित है जो संकेत था कि भविष्य में कुरीतियां समाप्त हो जाएंगी। सुना है कि सैराट के हिंदी में बने चरबे में शिशु को भी मार दिया गया, परंतु जख्मी कन्या जीवित है। संभवत: यह सफल फिल्म के भाग दो की संभावना को देखकर किया गया।


दशकों पूर्व गिरीश कर्नाड की फिल्म ‘संस्कार’ भी सराही गई थी। संस्कार में बचपन से ही दो ब्राह्मण गहरे मित्र रहे हैं। उनमें से एक को दलित स्त्री से प्रेम हो जाता है और वह उसी के साथ रहने लगता है। कालांतर में उस ब्राह्मण की मृत्यु हो जाती है तो वह अपने प्रेमी पति के बचपन के मित्र से पूछने आती है कि क्या मरने वाले का अंतिम संस्कार ब्राह्मणों की विधि से किया जाएगा?

इस प्रकरण पर निर्णय के लिए वह कुछ समय मांगता है, मन के द्वंद्व को शांत करने के लिए वह नदी में स्नान करने जाता है। वहीं स्त्रियों के लिए बने घाट पर गीली साड़ी में उस दलित स्त्री को पानी से निकलते देखता है। वह उसकी देह के सौंदर्य से अभिभूत होकर सोचता है कि उसके बाल सखा ने कितना सुखी जीवन जीया होगा। वह निर्णय देता है कि मृतक का अंतिम संस्कार ब्राह्मण विधि से हो।


यह तथ्य भी सामने है कि राजनीति में भी चुनाव क्षेत्र में अधिक मतदाता जिस जाति के होते हैं, चुनाव लड़ने का अवसर भी उसे ही दिया जाता है। हमारी गणतंत्र व्यवस्था में जातिवाद ने दरारें बना दी हैं और कालांतर में व्यवस्था ढह सकती है। यह भी चिंतनीय है कि अपेक्षाकृत कम सफल फिल्म जातिवाद पर प्रहार करने वाली फिल्म है।



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इंद्रियों के भीतर संभावनाएं जगाएं

हम सभी के पास दस इंद्रियां हैं। पांच कर्मेंद्रियां (हाथ, पैर, मल-मूत्र की दो इंद्रियां और कंठ) तथा पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, नाक, कान, जीभ और त्वचा)। इनको केवल शरीर का सामान्य अंग मानने की भूल न करें, बल्कि इनके प्रति बहुत अच्छा और गहरा परिचय रखिए। हर इंद्री के भीतर इतनी संभावना है कि यदि आपने उस सोई हुई संभावना को जगा लिया तो ये अकल्पनीय परिणाम देंगी।

इतिहास में व्यक्त है कि एक आदमी को दिन में तारे दिखने लगे। सुनकर आश्चर्य होता है कि दिन में सूरज की रोशनी में तारे कैसे दिख सकते हैं, क्योंकि आसमान में तारे उसी समय दिख सकते हैं जब तक सूरज नहीं होता। लेकिन उस आदमी को दिखने लगे। विज्ञान मान भी गया कि उस व्यक्ति की आंखें इतनी जागृत हो गईं कि वह प्रकृति के उस हिस्से को देखने लगा जिसका संबंध किसी अद्वैत शक्ति से है।

यह तो केवल आंख का उदाहरण है। सच तो यह है कि हमारी हर इंद्रीय के पास एक ऐसी दबी-छिपी शक्ति है जिसे हम अपने ही प्रयत्न से उजागर कर सकते हैं। सदाचार, स्वाध्याय, संयम, संतुलन ये कुछ तरीके हैं जिनसे अपनी इंद्रियों के भीतर की शक्ति को बाहर निकाला जा सकता है। हमारी एक-एक इंद्री अद्भुत है और इनके चमत्कार के आगे विज्ञान भी मौन होकर शोध में लग जाता है कि आखिर मनुष्य के शरीर का कोई अंग कैसे ऐसा दिव्य हो सकता है। इसलिए इनके भीतर की संभावनाओं को जगाए रखिए।



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भीतर की शक्ति से बाहरी बैक्टीरिया का सामना कर सकते हैं

हमारे शरीर में बैक्टीरिया पहले से होते हैं। जैसे ही हमारे शरीर का इम्युनिटी पावर कमजोर होता है तो छोटे-छोटे वायरस भी थोड़ा सा मौसम बदलते ही हमारे शरीर पर हमला कर देते हैं। यदि मैं मजबूत रहती हूं तो बाहर का मौसम भले बदले, तूफान हो, बर्फ पड़े हमारे ऊपर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। मैं अपना ध्यान नहीं रखूं और सिर्फ बोलती रहूं कि मौसम ठीक नहीं है, सर्दी इतनी बढ़ गई, गर्मी बढ़ गई है तो बीमार पड़ना ही है। स्वस्थ रहना है या बीमार रहना है ये दोनों विकल्प हमारे पास है।

जैसे हम अपने शरीर का ध्यान रखते हैं वैसे ही हमें अपने मन का भी ध्यान रखना होगा। यह उस समय नहीं होगा जब परिस्थितियां आती है। आप अपने शरीर के अंदर ताकत तब नहीं भरते हैं जब मौसम बदलता है। आप हर दिन शरीर का ध्यान रखते हैं, फिर चाहे बाहर कितना भी परिवर्तन क्यों न आए वह आपको अंदर से प्रभावित नहीं कर सकता है।


शरीर के अंदर शक्ति है कि वह बाहर के परिवर्तन के साथ शरीर का सामंजस्य बैठाकर संतुलन बना लेती है। अगर बाहर से इन्फेक्शन आ रहा है तो शरीर का इम्युनिटी पावर उसे कब खत्म कर देता है हमें इसका पता भी नहीं चलता है। और हम सामान्य रूप से कार्य करते रहते हैं। उसी तरह अगर हम मन का भी ध्यान रखें उसकी रोज सफाई करें, पोषण दें, व्यायाम करें तो बाहर कब क्या होगा और चला जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा।

जब जैसी परिस्थिति होती है वैसी ही हमारी खुशी भी हो जाती है क्योंकि यह कुछ-कुछ बाहर की बातों पर निर्भर करती है। लेकिन इसकी अपनी कोई ताकत नहीं है जो हमारी खुशी को प्रभावित कर सके। आप अच्छा बोलो तो खुश, आप अच्छा नहीं बोलो तो भी खुश। इसलिए हमने पहले भी कहा था कि ध्यान रखना। बैक्टीरिया भले आए, कोई बहुत कुछ बुरा-भला भी कह दे, कोई नाराज हो जाएगा, बच्चे संतुष्ट नहीं होंगे, बॉस गुस्सा हो जाएगा, ये सब बैक्टीरिया ही तो हैं जो बाहर से आते हैं।


आज बच्चे बहुत अच्छी तरह से बात कर रहे हैं कल अचानक उन्होंने कुछ गलत बोल दिया, ये सब परिवर्तन ही तो है जो मौसम में बदलाव लाया है। हमारे अंदर वो शक्ति है जो हम इसका सामना कर सकते हैं। जो स्वयं को सुरक्षित नहीं करेगा वो तो कष्ट सहन करेगा ही फिर चाहे वो शारीरिक हो या भावनाओं के रूप में हो। क्योंकि हमें भावनात्मक सुरक्षा के बजाए शारीरिक सुरक्षा करना आसान लगता है। इसलिए हम इमोशनल हेल्थ की तरफ ध्यान ही नहीं देते हैं।

जब हम अपनी इमोशनल हेल्थ की सुरक्षा करना शुरू कर देंगे तब यह भी आसान हो जाएगा। फिर चाहे कोई कुछ भी बोले हमें फर्क नहीं पड़ेगा। एक दिन आप अपने आपको जांचना कि किसी ने आपसे बात नहीं की, बेइज्जती कर दी, अपमानित कर दिया, कुछ उल्टा-सीधा बोल दिया, तो ऐसी परिस्थिति में मैं क्या कर सकती हूं। क्या मैं इतनी कमजोर हूं कि हर किसी के व्यवहार को अपने ऊपर हावी होने दूं। अगर हम अपना सारा नियंत्रण बाहर को दे देंगे तो दुखी हो जाएंगे। क्योंकि बाहर चुनौतियां बहुत ज्यादा है।



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ट्रम्प ने यूएस को औरतों के लिए जहरीला बनाया

हर लिहाज से 77 वर्षीय जो बिडेन 73 वर्षीय राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के सामने डेमोक्रेटिक उम्मीदवार होंगे। यह एक बात तो साबित करता है कि डेमोक्रेट्स के पास जितने भी लोग थे, फिर चाहे कैलिफोर्निया की सीनेटर कमला हैरिस हों, मैसाचुसेट्स सीनेटर एलिजाबेथ वॉरेन, मिनेसोटा सीनेटर एमी क्लोबचर, न्यूयॉर्क सीनेटर क्रिस्टेन गिलिब्रैंड और लेखक मरीयाने विलियमसन जैसी स्मार्ट महिलाएं, लेकिन चुने गए बीडन ही। डेमोक्रेट्स को महिलाओं के साथ बदसलूकी के लिए मशहूर ट्रम्प के खिलाफ अपनी इस जंग में पूर्व उप राष्ट्रपति जो बिडेन से बेहतर कोई नहीं मिला।


और तो और यह तब जब पूर्व हॉलीवुड सेलिब्रिटी हार्वे विन्सटीन को कुछ वक्त पहले ही यौन शोषण के लिए 23 साल की जेल हुई है। इसी के साथ यह पहला मौका है जब कांग्रेस में पहली बार इतनी संख्या में महिलाएं हैं।ट्रम्प के रहते चार साल होने को आए हैं जब सार्वजनिक तौर पर महिलाओं के साथ गुंडई को बतौर खेल स्वीकार लिया गया है। और जिसके लिए खुद राष्ट्रपति ट्रम्प ने स्वीकृति दी है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के ट्विटर अकाउंट पर नजर दौड़ाएं तो महसूस होता है कि वह महिलाओं के बारे में कुछ अच्छा नहीं कहते-सोचते, जब तक कि बात उनकी बेटी इवांका की न हो।

कई बार तो बेटी को लेकर उनके सेक्सुअल कमेंट्स भी बेहद परेशान करने वाले रहे हैं। वह हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव की स्पीकर नैन्सी पेलोसी को नापसंद करते हैं और उन्हें वह ‘डू नथिंग डेमोक्रेट्स’ के साथ जोड़ चुके हैं। वह सार्वजनिक तौर पर यह कह चुके हैं कि फॉक्स न्यूज की स्टार एंकर मेगिन कैली उनका इंटरव्यू लेते वक्त पीरियड्स में थीं। 2016 में डेमोक्रेट उम्मीदवार और प्रतिद्वंदी हिलेरी क्लिंटन को वह क्रूक्ड हिलेरी यानी कुटिल हिलेरी कहते हैं जो उनके फॉलोवर्स के बीच खासा मशहूर है।

और जब उनके पूर्व सहयोगी रॉब पोर्टर पर दुर्व्यवहार के आरोप लगे तो ट्रम्प ने ट्वीट किया - ‘लोगों की जिंदगियां महज एक आरोप लगने से बिखर और नष्ट हो जाती हैं। कुछ सच होते हैं कुुछ झूठे। कुछ पुराने और कुछ नए होते हैं। झूठे आरोप की कोई वसूली नहीं होती, जिंदगी और करिअर चले गए। क्या मौजूदा नियम कायदों से जुड़ी कोई प्रक्रिया बाकी ही नहीं है?’ यह सब ट्रम्प ने तब लिखा, कहा और पोस्ट किया जब वह खुद को महिलाओं का सम्मान करनेवाला दिखा रहे थे। यहां तक कि एक नई किताब ऑल द प्रेसिडेंट्स वुमन: डोनल्ड ट्रम्प और द मेेकिंग ऑफ ए प्रिडेटर में उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न के 43 नए आरोपों से जुड़ी जानकारियां हैं।


महिलाओं को लेकर ट्रम्प की टिप्पणी फिर चाहे वह उन्हें कामचोर से लेकर घृणित जानवर कहने के बारे में हो, इसने सार्वजनिक तर्कों को इस हद तक नीचे गिरा दिया है कि अब जो बिडेन जैसे लोगों का सेक्सिज्म भी स्वीकार्य और औसत दर्जे का लगता है। इसकी कोई और वजह हो ही नहीं सकती कि कैसे बिडेन महिलाओं के पसंदीदा उम्मीदवार के बतौर सामने आए हैं। बावजूद इसके कि उन्होंने एक ऐसी हैल्थ केयर पॉलिसी का समर्थन किया है जो सैकड़ों अमेरिकी महिलाओं को इंश्योरेंस के फायदे से विमुख कर देगी, जिसमें सिर्फ 12 हफ्तों की पेड फैमिली लीव का प्रावधान है और चाइल्ड केयर जैसा कुछ भी शामिल नहीं है।

यही नहीं, वायलेंस अगेन्स्ट वुमन एक्ट जैसे कानून का भी उन्होंने समर्थन किया है, जिसे लेकर विशेषज्ञों का मानना है कि उससे अमेरिका की कमजोर महिलाओं की सुरक्षा के बजाए अपराधीकरण को बढ़ावा मिलेगा। पॉलिटिको मैग्जीन के मुताबिक प्रेसीडेंट ट्रम्प न सिर्फ महिलाओं के खिलाफ बोलते हैं बल्कि उनका प्रबंधन महिलाओं के हक को मिटाने के लिए जोर-शोर से काम कर रहा है। डिपार्टमेंट ऑफ एजुकेशन ने यौन उत्पीड़न के आरोपी छात्रों को ज्यादा सुरक्षा मुहैया कराने के उपाय अपनी नीतियों में शामिल किए हैं।

जेंडर पे गैप को खत्म करने के लिए बनाए नियम को सस्पेंड कर उन्होंने वर्किंग वुमन और उनके परिवारों पर निशाना साधा है। उन्होंने 1973 के रो वर्सेस वेड के भविष्य को धमकी दी हैै जिसने महिलाओं को एबॉर्शन का अधिकार दिया है। ट्रम्प ने ब्रेट कावानाह को सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश बनाने नॉमिनेट किया जिनके खिलाफ यौन शोषण के आरोप थे।


व्हाइट हाउस में सेक्सिज्म कोई नई बात नहीं है। राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के अपनी इंटर्न मोनिका लेविंस्की के साथ अफेयर ने युवा महिला की जिंदगी बर्बाद कर दी। और आज भी क्लिंटन अपनी सफाई देते हुए बस यही कह पाए कि उन्होंने काम का तनाव कम करने के लिए यह संबंध बनाए थे। उनसे पहले भी, राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी का व्याभिचार प्रसिद्ध था, जिसे उनकी पत्नी ने स्वीकार किया था और जिस पर पत्रकारों ने भी आंखें बंद कर ली थीं।

जो उस वक्त व्याभिचार माना जाता था अब स्त्रीद्वेष और सेक्सिज्म कहलाता है। ट्रम्प ने जहरीले मर्दवाद को अपनी बातों और बयानों का हिस्सा बनाया है। बावजूद इसके कि सक्षम और प्रतिभाशाली महिलाओं ने उन्हें कई बार शर्मिंदा होने से बचाया है। फिर चाहे वह केलियान कोन्वे हों या सराह हकाबी सैंडर्स। आखिर क्या है जो ट्रम्प को महिला विरोधी बनाता है और कैसे इस बात ने अमेरिका को महिलाओं के लिए जहरीला बनाया है?


सच यही है कि महिलाएं कितनी ही तरक्की कर लें लेकिन विन्स्टीन जैसे कुछ दुष्कर्मियों की सोच बदलना मुश्किल है। पिछले दिनों जब उसे सजा सुनाई जा रही थी तो वह बोला, मीटू के मामलों में लड़ाई लड़ने वाले मर्दों पर उन्हें तरस आता है। कई सारे पुरुष इस नई दुनिया में दबाव महसूस करते हैं जब उन्हें महिलाओं के साथ संबंधों की शर्तों पर दोबारा बातचीत करनी पड़ती है।

सशक्त महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर गाली देने वाले राष्ट्रपति ट्रंप और औरतों-बेटियों को बुरी नीयत से छूने वाले बिडेन जैसे लोग उन्हें आकर्षित करते हैं। आखिर किसी भी युवा आदमी के लिए जो पावरफुल रोल मॉडल ढूंढ रहा होता है, राष्ट्रपति ट्रम्प के व्यवहार को आदर्श समझने की गलती कर सकता है।(ये लेखिका के अपने विचार हैं।)



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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प।


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कार्यस्थल पर महिलाओं को पीछे धकेलने का षडयंत्र

शशि थरूर ने महिलाओं को मैन्स्ट्रुएशन लीव देने की वकालत की है। इसके लिए उन्होंने बाकायदा एक ऑनलाइन याचिका के समर्थन में ट्वीट किया है। बदले में इसके थरूर को सशक्त महिलाओं की बिरादरी की नाराजगी झेलनी पड़ी है। महिलाओं से जुड़ी इस रूटीन बायोलॉजी को हौव्वा बना देना उन्हें किसी भी लिहाज से सशक्त नहीं करेगा। गौरतलब है कि थरूर ने यह ट्वीट अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर किया था जो किसी भी लिहाज से महिला सशक्तिकरण को लेकर उठाया कदम नहीं हो सकता।

महिलाओं की आबादी की आधी जनसंख्या और दुनिया की जनसंख्या का 26% हर महीने 2 से लेकर 7 दिनों तक मासिक धर्म से गुजरता है। वहीं कार्यस्थल पर आज भी महिलाओं के पास दुनियाभर के पुरुषों के मुकाबले एक तिहाई ही अधिकार हैं। अमेरिका जैसे देश में 42% महिलाओं ने माना कि उनके साथ दफ्तर में उनके जेंडर की वजह से भेदभाव होता है। जिसमें पुरुषों के मुकाबले कम वेतन मिलना, कम अहमियत वाला काम करवाना, प्रमोशन न देना और अलग-थलग महसूस करवाना शामिल है।

यदि इन सब चुनौतियों के बीच महिलाओं को मैन्स्ट्रुएशन लीव दी जाने लगी तो महिलाओं और पुरुष सहकर्मियों के बीच की खाई और गहरी हो जाएगी। किसी भी लिहाज से यह छुट्‌टी उनके लिए मददगार साबित नहीं हो सकती। कितने ही उदाहरण है जब महिला खिलाड़ियों ने पीरियड्स के दौरान ही किसी महत्वपूर्ण टूर्नामेंट में भाग लिया और अपना बेहतरीन प्रदर्शन कर मेडल भी जीता। मासिक धर्म से जुड़ी सभी शारीरिक चुनौतियों का सामना करते हुए महिलाओं ने इस दौरान दफ्तर में लंबे वक्त तक काम करने, दौड़ने-भागने और एक्सरसाइज करने जैैसे सभी काम किए हैं।

यूं भी पहले ही छह महीने की बेहद अहम मैटरनिटी लीव मिलने पर देश के वर्किंग फोर्स में मौजूद पुरुष सहकर्मियों की प्रतिक्रिया कुछ ज्यादा उत्साहजनक नहीं रही है। यही नहीं इस लीव की लड़ाई के लिए कितनी महिलाओं को नौकरी छोड़नी पड़ी है और जिनकी जीत हुई उन्हें दफ्तर में फब्तियां झेलनी पड़ी हैं। तो क्या यह नई छुट्‌टी महिलाओं को कार्यस्थल पर और पीछे धकेलने का षडयंत्र नहीं? थरूर यदि कुछ करना ही चाहते हैं तो मासिक धर्म से जुड़ी पाबंदियों के पाखंड को खत्म करने को लड़ें। जबकि वह खुद सबरीमाला में महिलाओं की एंट्री को गैरजरूरी कह चुके हैं।



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प्रतीकात्मक फोटो।


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38 साल पहले हरियाणा से शुरू हुई थी रिसॉर्ट पॉलिटिक्स, तब से अब तक 9 राज्यों में 14 बार सरकार बचाने-बनाने के लिए विधायकों को होटल भेजा गया

भास्कर रिसर्च. मध्य प्रदेश के सियासी घटनाक्रम में भाजपा-कांग्रेस, कमलनाथ-सिंधिया के अलावा एक और शब्द है, जिसकी चर्चा जोरों पर है। वो शब्द है- रिसॉर्ट पॉलिटिक्स। इस शब्द की चर्चा इसलिए भी क्योंकि भाजपा ने पहले अपने 107 में से 105 विधायक दिल्ली, मनेसर और गुरुग्राम के होटल भेजे। उसके बाद कांग्रेस ने भी अपने 80 विधायक जयपुर के होटल में भेज दिए। कांग्रेस के ही 20 बागी विधायक पहले से बेंगलुरु के एक होटल में हैं। देश में रिसॉर्ट पॉलिटिक्स का इतिहास 38 साल पुराना है। मई 1982 में हरियाणा में आईएनएलडी के चीफ देवी लाल ने इसकी शुरुआत की थी। तब से अब तक ये 9 राज्यों में ये 14वीं बार है, जब सरकार बचाने-बनाने के लिए विधायकों को होटल भेजा गया है। इसमें से भी 9 बार सीधी लड़ाई भाजपा-कांग्रेस के बीच रही। 4 बार एक ही पार्टी के बीच रही और एक बार क्षेत्रीय पार्टियों के बीच हुई। एक बार फिर इतिहास पर नजर डालते हैं और देखते हैं कि देश में कब-कब रिसॉर्ट पॉलिटिक्स देखने को मिली...

पहली बार : मई 1982 । हरियाणा
किस-किसके बीच : भाजपा v/s कांग्रेस

विधानसभा चुनाव से पहले इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) और भाजपा के बीच गठबंधन हुआ। यहां की 90 सीटों में से किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। भाजपा-आईएनएलडी ने 37 और कांग्रेस ने 36 सीटें जीतीं। उस समय आईएनएलडी के चीफ देवी लाल ने भाजपा-आईएनएलडी के 48 विधायकों को दिल्ली के एक होटल में भेज दिया था। एक विधायक तो होटल के वाटर पाइप के जरिए वहां से भागकर भी आ गया था। उसके बाद तत्कालीन गवर्नर जीडी तपासे ने देवी लाल को बहुमत साबित करने को कहा, लेकिन वे बहुमत साबित ही नहीं कर पाए। उसके बाद कांग्रेस ने गठबंधन बनाकर सरकार बनाई, जिसमें भजन लाल मुख्यमंत्री बने।

देवी लाल और भजन लाल।- फाइल फोटो

दूसरी बार : अक्टूबर 1983 । कर्नाटक
किस-किसके बीच : भाजपा v/s कांग्रेस

उस समय कर्नाटक में जनता पार्टी की सरकार थी और रामकृष्ण हेगड़े मुख्यमंत्री थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हेगड़े सरकार गिराना चाहती थीं। इससे बचने के लिए हेगड़े ने अपने 80 विधायकों को बेंगलुरु के एक रिसॉर्ट में भेज दिया। हालांकि, हेगड़े बाद में विधानसभा में बहुमत साबित करने में कामयाब रहे थे।

रामकृष्ण हेगड़े। - फाइल फोटो


तीसरी बार : अगस्त 1984 । आंध्र प्रदेश
किस-किसके बीच : टीडीपी v/s टीडीपी

उस समय राज्य में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) की सरकार थी और मुख्यमंत्री एनटी रामा राव थे। उस समय एनटीआर अमेरिका गए थे। उनकी गैरमौजूदगी में गवर्नर ठाकुर रामलाल ने टीडीपी के ही एन. भास्कर राव को मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन,भास्कर राव के मुख्यमंत्री बनते ही पार्टी में अंदरुनी कलह पैदा हो गई। अमेरिका से लौटने से पहले ही एनटीआर ने अपने सभी विधायकों को बेंगलुरु भेज दिया। एक महीने में ही भास्कर राव को इस्तीफा देना पड़ा और एनटीआर मुख्यमंत्री बन गए।

एनटीआर और भास्कर राव।- फाइल फोटो


चौथी बार : सितंबर 1995 । आंध्र प्रदेश
किस-किसके बीच : टीडीपी v/s टीडीपी

आंध्र प्रदेश में ही 10 साल बाद फिर एनटीआर को अंदरुनी कलह का सामना करना पड़ा। इस बार उनके सामने उनके ही दामाद चंद्रबाबू नायडू थे। नायडू ने अपने समर्थक विधायकों को हैदराबाद के वायसराय होटल भेज दिया। 1 सितंबर 1995 को चंद्रबाबू नायडू पहली बार आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। एनटीआर उसके बाद कभी दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बन पाए।

एनटीआर के बगल में बैठे चंद्रबाबू नायडू।- फाइल फोटो


पांचवीं बार : अक्टूबर 1996 । गुजरात
किस-किसके बीच : भाजपा v/s भाजपा

शंकर सिंह वाघेला पहले भाजपा के नेता थे, लेकिन 1996 में उन्होंने भाजपा छोड़कर राष्ट्रीय जनता पार्टी नाम से अपनी पार्टी बनाई। गुजरात में उस समय भाजपा की ही सरकार थी, जिसमें केशुभाई पटेल मुख्यमंत्री थे। वाघेला बागी हो गए। उन्होंने अपने 47 समर्थक विधायकों को मध्य प्रदेश के खजुराहो के एक होटल में भेज दिया। उस समय जिन विधायकों ने वाघेला का साथ दिया, उन्हें "खजुरिया' कहा जाने लगा और जिन विधायकों ने साथ नहीं दिया, उन्हें ‘‘हजुरिया’’कहा जाने लगा। हजुरिया का मतलब वफादार। उसके बाद वाघेला ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई और मुख्यमंत्री बने।

केशुभाई पटेल और शंकर सिंह वाघेला।- फाइल फोटो


छठी बार : मार्च 2000 । बिहार
किस-किसके बीच : जदयू v/s राजद-कांग्रेस

2000 के विधानसभा चुनाव के बाद जब राजद-कांग्रेस विश्वास मत हार गए, तो उसके बाद नीतीश कुमार को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। 3 मार्च को नीतीश कुमार ने पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली। विश्वास मत से पहले जदयू ने अपने विधायकों को पटना के एक होटल भेज दिया, लेकिन उसके बाद भी नीतीश बहुमत साबित नहीं कर पाए और 10 मार्च को इस्तीफा दे दिया। इसके बाद राबड़ी देवी दूसरी बार बिहार की मुख्यमंत्री बनीं।

नीतीश कुमार।- फाइल फोटो

सातवीं बार : जून 2002 । महाराष्ट्र
किस-किसके बीच : भाजपा-शिवसेना v/s कांग्रेस-राकांपा

1999 के विधानसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र में कांग्रेस-राकांपा गठबंधन की सरकार बनी। लेकिन तीन साल के अंदर ही महाराष्ट्र में सियासी उठापठक शुरू हो गई। कांग्रेस-राकांपा ने भाजपा-शिवसेना गठबंधन को रोकने के लिए अपने 71 विधायकों को मैसूर के एक होटल में ठहराया। तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता स्वर्गीय विलासराव देशमुख भी विधायकों से मिलने बार-बार होटल जाते थे। हालांकि, भाजपा-शिवसेना सरकार नहीं बना सकी थी।

स्व. विलासराव देशमुख।- फाइल फोटो

आठवीं बार : मई 2016 । उत्तराखंड
किस-किसके बीच : भाजपा v/s कांग्रेस

9 कांग्रेस विधायक और 27 भाजपा विधायकों ने तत्कालीन गवर्नर केके पॉल से मिलकर तत्कालीन हरीश रावत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने की मांग की। इसके बाद भाजपा ने अपने 27 विधायकों को दो ग्रुप में जयपुर के अलग-अलग होटल भेजा। एक ग्रुप को होटल जयपुर ग्रीन्स में ठहराया गया, जबकि दूसरे ग्रुप को जयपुर के एक फार्म हाउस में ठहराया गया। भाजपा-कांग्रेस ने एक-दूसरे पर हॉर्स ट्रेडिंग का आरोप लगाया। कई दिनों तक चली उठापठक के बाद उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस चुनाव हार गई और भाजपा की सरकार बनी।


नौवीं बार : फरवरी 2017 । तमिलनाडु
किस-किसके बीच : अन्नाद्रमुक v/s अन्नाद्रमुक

दिसंबर 2016 में जयललिता की मौत के बाद तमिलनाडु में राजनीतिक संकट खड़ा हो गया। कारण था- अन्नाद्रमुक (एआईएडीएमके) में ही गुटबाजी होना। इससे नाराज तत्कालीन मुख्यमंत्री ओ पन्नीरसेल्वम ने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद जयललिता की भतीजी शशिकला मुख्यमंत्री बनीं। लेकिन,सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बेनामी संपत्ति के मामले में सजा सुनाते हुए जेल भेज दिया। इसके बाद शशिकला ने पलानीसामी को मुख्यमंत्री नियुक्त किया। पन्नीरसेल्वम और पलानीसामी गुट की वजह से शशिकला ने अपने 130 समर्थक विधायकों को चेन्नई के एक होटल भेज दिया। हालांकि, कुछ समय बाद जब फ्लोर टेस्ट हुआ तो पलानीसामी की जीत हुई।

ओ पन्नीरसेल्वम और ई पलानीसामी।- फाइल फोटो

दसवीं बार : अगस्त 2017 । गुजरात
किस-किसके बीच : भाजपा v/s कांग्रेस

इस साल गुजरात की तीन राज्यसभा सीट पर चुनाव होने थे। दो पर भाजपा की जीत पक्की थी। इन दो सीटों में से एक पर अमित शाह और दूसरी पर स्मृति ईरानी खड़ी हुईं। तीसरी पर कांग्रेस के अहमद पटेल थे, जिनकी जीत भी लगभग तय थी। लेकिन भाजपा ने कांग्रेस से बागी बलवंत राजपूत को अहमद पटेल के खिलाफ खड़ा कर दिया। राज्यसभा चुनाव से पहले शंकर सिंह वाघेला के कांग्रेस छोड़ने से कई कांग्रेस विधायक भी बागी हो गए। कांग्रेस ने अपने 44 विधायकों को हॉर्स ट्रेडिंग से बचाने के लिए बेंगलुरु के ईगलटन रिजॉर्ट में बंद कर दिया। इन्हें 8 अगस्त को वोटिंग वाले दिन ही विधानसभा लाया गया। हालांकि, काफी देर चली खींचतान के बाद अहमद पटेल ही जीते।

बेंगलुरु के रिसॉर्ट मेंकांग्रेस प्रवक्ता शक्ति सिंह गोहिल के साथ कांग्रेस के 44 विधायक। फोटो-जुलाई 2017

11वीं बार : मई 2018 । कर्नाटक
किस-किसके बीच : भाजपा v/s कांग्रेस-जेडीएस

मई 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। भाजपा 104 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी। राज्यपाल ने भाजपा के बीएस येदियुरप्पा को सरकार बनाने का न्योता दिया। उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ली। लेकिन तभी सुप्रीम कोर्ट ने 48 घंटे के अंदर येदियुरप्पा को बहुमत साबित करने का आदेश दिया। हॉर्स ट्रेडिंग से बचाने के लिए कांग्रेस-जेडीएस ने अपने विधायकों को हैदराबाद के एक होटल में भेज दिया। हालांकि, फ्लोर टेस्ट से पहले ही येदियुरप्पा ने इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की सरकार बनी।

कांग्रेस-जेडीएस के विधायक कर्नाटक के होटल से हैदराबाद के होटल जाते हुए। फोटो- मई 2018

12वीं बार : जुलाई 2019 । कर्नाटक
किस-किसके बीच : भाजपा v/s कांग्रेस-जेडीएस
कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की सरकार से 17 विधायकों ने अचानक इस्तीफा दे दिया। इन विधायकों को मुंबई के रेनेसां होटल में ठहराया गया। कुछ दिन बाद इन्हें गोवा के एक रिसॉर्ट में शिफ्ट कर दिया गया। 23 जुलाई 2019 को कुमारस्वामी सरकार को बहुमत साबित करना था, लेकिन ये विधायक वहां भी नहीं पहुंचे और कांग्रेस-जेडीएस की सरकार गिर गई। इसके बाद येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी। भाजपा ने भी फ्लोर टेस्ट से पहले अपने सभी विधायकों को बेंगलुरु के चांसरी पैवेलियन होटल में ठहराया था। इन 17 में से 15 विधायकों ने दोबारा चुनाव लड़ा, जिसमें से 11 जीतकर आए।

कर्नाटक के बागी कांग्रेस विधायक मुंबई के होटल में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान। फोटो- जुलाई 2019

13वीं बार : नवंबर 2019 । महाराष्ट्र
किस-किसके बीच : भाजपा v/s शिवसेना-कांग्रेस-राकांपा

विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा-शिवसेना में गठबंधन था, लेकिन नतीजे आने के बाद शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद की मांग पूरी नहीं होने पर गठबंधन तोड़ दिया। बाद में राकांपा के अजित पवार भाजपा से मिले और आनन-फानन में देवेंद्र फडनवीस ने मुख्यमंत्री और अजित पवार ने उप-मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली। इसके बाद टूट के डर से शिवसेना, कांग्रेस और राकांपा ने अपने विधायकों को मुंबई के हयात होटल में ठहरवाया। हालांकि, इससे पहले भी इसी डर से शिवसेना के विधायक होटल द ललित, राकांपा के विधायक द रेनेसां और कांग्रेस के विधायक जेडब्ल्यू मैरियट होटल में ठहरे थे। निर्दलीय विधायकों को भी गोवा के एक रिसॉर्ट में ठहराया गया था। हालांकि, फ्लोर टेस्ट से पहले ही अजित पवार भी अलग हो गए और देवेंद्र फडनवीस ने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद राज्य में शिवसेना-कांग्रेस-राकांपा गठबंधन की सरकार बनी।

नवंबर में महाराष्ट्र में हुए राजनीतिक उठापठक के बीच मुंबई के रेनेसां होटल जाते राकांपा के विधायक।

14वीं बार : मार्च 2020 । मध्य प्रदेश
किस-किसके बीच : भाजपा v/s कांग्रेस
10 मार्च को कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा में शामिल होने का फैसला लिया। इससे एक दिन पहले से ही उनके समर्थक विधायकों के फोन बंद हो रहे थे। बाद में पता चला कि इन विधायकों को बेंगलुरु के एक रिजॉर्ट में रखा गया है। इसके बाद 10 मार्च की रात ही भाजपा ने भी अपने 107 में से 105 विधायकों को गुरुग्राम के आईटीसी ग्रैंड होटल में भेज दिया। 11 मार्च को कांग्रेस के 80 विधायक जयपुर के एक होटल भेजे गए।



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जयपुर एयरपोर्ट से बस से रिसॉर्ट जाते कांग्रेस विधायक


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वर्कप्लेस पर ब्रेक न मिलने के डर से पानी तक नहीं पीती थीं महिलाएं, अब पानी के साथ बैठने के लिए कुर्सियां भी मिलने लगी

कोच्चि. 2011 की जनगणना के मुताबिक, केरल में 1000 पुरुषों पर सेक्स रेशो1084 का था, जबकि देशभर में यह आंकड़ा 940 महिलाओं का था। इसी तरह से साक्षरता दर, जीवन प्रत्याशा और शादी के समय औसत आयु के मामले में भी केरल की महिलाएं आगे हैं। 2010 के इकोनॉमिक रिव्यू के अनुसार, केरल की महिलाओं की साक्षरता दर 92% थी, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 65%था। रिपोर्ट के मुताबिक, केरल की महिलाओं की औसत आयु 76 साल 3 महीने है, जबकि नेशनल लेवल पर यह 64 साल 2 महीने है। इसके बावजूद केरल की भी महिलाओं को बुनियादी अधिकारों के लिए जूझना पड़ा। पेनकुटू नाम की संस्था ने महिलाओं के लिए वर्कप्लेस पर अधिकार की लड़ाई लड़ी, पिंक पुलिस पेट्रोल की शुरुआत की गई और कुडुम्बाश्री के जरिए महिलाओं की आर्थिक सशक्तीकरण के लिए जोरदार काम किया। पेश है ऐसी ही महिलाओं के कुछ किस्से जिन्होंने समाज को बदला...

वर्कप्लेस पर ब्रेक नहीं मिला तो शुरू की महिलाओं के अधिकार की लड़ाई
वर्कप्लेस पर महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए केरल के कोझिकोड की विजी ने 'पेनकुटू' नाम के एक एनजीओ की शुरुआत की। कहानी विजी के अपने वर्कप्लेस से शुरू होती है। पेशे से टेलर विजी को एक दिन काम के दौरान आराम करने से मना कर दिया गया था। इसके बाद उन्होंने एनजीओ बनाकर वर्कप्लेस पर महिलाओं को बुनियादी अधिकार दिलाने के लिए लड़ाई शुरू की। विजी ने एनजीओ सरकार पर वर्कप्लेस पर महिलाओं के लिए कानून बनाने, उन्हें सुरक्षित माहौल देने और काम के दौरान आराम करने का अधिकार देने के लिए लेबर लॉ में बदलाव लाने का दबाव बनाया। मई 2018 में पेनकुटू की वजह से सरकार ने कानून बनाया और अफसरों को जिम्मेदारी दी गई कि वे सुनिश्चित करें कि वर्कप्लेस पर कानून का पालन हो रहा है।

'पेनकुटू' एनजीओ की संस्थापक विजी।

विजी कहती हैं, ‘‘केरल एक ऐसा राज्य है, जिसने ऐसा डेवलपमेंट मॉडल तैयार किया है जो महिलाओं के लिए ज्यादा खुला और जुड़ा हुआ है। लेकिन अभी भी कई ऐसे सेक्टर हैं, जहां कानून का पालन नहीं होता हैं।राज्य में कई वर्कप्लेस पर महिला मजदूरों को ब्रेक नहीं दिया जाता था। सबसे बड़ी दिक्कत टॉयलेट की थी। काम के दौरान उन्हें बार-बार टॉयलेट जाने पर डांट भी पड़ती थी। डर सेचलते ज्यादातर महिलाएं पानी ही नहीं पीती थीं। इस कारण ज्यादातर महिलाओं को संक्रमण भी हो जाता था,लेकिन अब हम खुश हैं कि राइट टू सिटके हमारे आंदोलन से वर्कप्लेस सिस्टम में बड़ा बदलाव आया। अब केरल में महिलाओं से न सिर्फ यह सुविधाएं मिलने लगीं, बल्कि हर टेक्सटाइल फैक्ट्री में बैठने के लिए कुर्सियां भी मिलने लगी हैं।

पिंक पुलिस पेट्रोल से क्राइम रेट में कमी आई
2016 में महिला सुरक्षा के लिए केरल की तत्कालीन सरकार ने पिंक पुलिस पेट्रोलसेवा शुरू की थी। कोझीकोड के महिला पुलिस स्टेशन की सर्कल इंस्पेक्टर लक्ष्मी एमवी बताती हैं,‘‘पिंक पुलिस सेवा महिलाओं के लिए 24X7 काम करती है और इसने अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद की है।’’जब रात के दौरान हुए अपराधों के क्राइम रेट का डाटा देखा गया तो पता चला कि पिंक पुलिस की वजह से महिलाओं के खिलाफ क्राइम रेट में 30% की कमी आई है।

पुलिस से सीखी टेक्नीक काम आई
पुलिस डिपार्टमेंट ने सभी जिलों में महिलाओं और युवा लड़कियों को सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देने के लिए एक प्रोजेक्ट शुरू किया और इसे लागू भी किया। इस प्रोजेक्ट के तहत दो साल में 3.8 लाख से ज्यादा महिलाओं को सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग दी गई। कोझीकोड के कारापराम्बा के एक सरकारी स्कूल की छात्रा आर्या विजयन (बदला हुआ नाम) ने सेल्फ डिफेंस ट्रेनिंग का अनुभव साझा करते हुए बताया, ‘‘मैं एक दिन स्कूल से घर जा रही थी, तभी एक आदमी ने मुझसे छेड़छाड़ की। मैंने महिला पुलिस टीम से जो भी टेक्नीक सीखी थी, उसकी मदद से मैंने उस आदमी पर हमला बोल दिया।’’


महिलाएं ही महिलाओं के खिलाफ थीं
केरल में इस समय महिलाएं आर्थिक और मनोवैज्ञानिक दोनों तरह से सशक्त हो रही हैं। इसका श्रेय गरीबी उन्मूलन मिशन कुडुम्बाश्री को जाता है। इसे केरल सरकार द्वारा 1998 में नाबार्ड की मदद से शुरू किया गया था। केरल में महिलाओं की मानसिकता को समझने के लिए किए गए कुडुम्बाश्री ने एक सर्वे किया और पाया कि परिवार में महिलाएं ही सबसे पहले अन्य महिला सदस्यों के रात में अकेले सफर पर आपत्ति उठाती थीं। कई महिलाओं का मानना था अगर उनके पति उन्हें पीटते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं और उनकी सोच थी कि लड़कियों पर लड़कों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

कुडुम्बाश्री महिलाओं द्वारा बने उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में बिकते हैं
अपनी स्थापना के बाद से कुडुम्बाश्री ने 45,000 से ज्यादा महिलाओं की मदद की। कुडुम्बाश्री ने छोटे और मध्यम श्रेणी के उद्यमों को ऋण देना शुरू कर दिया और अपने उत्पादों को सीधे बेचने के लिए रास्ते खोजे। अब कुडुम्बाश्री महिलाओं द्वारा बनाए उत्पादों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी बेचा जाता है। कुडुम्बाश्री कोझिकोड के जिला समन्वयक कहते हैं, ‘‘महिलाओं को सशक्त बनाना महत्वपूर्ण है और महिला समुदाय के बारे में उनके दृष्टिकोण को सशक्त बनाना और भी अहम है।’’कुडुंबाश्री ने सबसे पहले28 पंचायतों और 14 जिलों में जेंडर एजूकेशन देने की पहल शुरू की। साथ ही पिंक टास्क फोर्सलॉन्च की गई। पिंक टास्क फोर्स के सदस्यों को आत्मरक्षा में प्रशिक्षित किया।

विशेष जरूरतों वाले बच्चों को प्रतिष्ठित कंपनियों और होटलों मेंकाम दिलाया
केरल निवासी अश्वथी दिनिल की कहानी भी दिलचस्प है। उनके कारण विशेष जरूरतों वाले कई बच्चे आज प्रतिष्ठित कंपनियों और होटलों में काम करते हैं। उनकी अपनी बच्ची ऑटिज्म से पीड़ित थी और उसकी स्थिति को समझते हुए उन्होंने अपने आस-पास के लोगों से इस बारे में बात करना शुरू करने का फैसला किया। अश्वथी के प्रयासों के बाद ही राज्य की ऑटिस्टिक लड़कियों को होटल, पार्किंग हब, अस्पताल और थिएटर जैसे वर्कप्लेस पर रखा जाने लगा। आज राज्य भर में 500 से अधिक ऐसी लड़कियां विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रही हैं।


सबरीमाला जाना हर एक महिला का अधिकार है
अश्वथी कहती हैं, “महिला सशक्तीकरण और रोजगार सिर्फ हमारे जैसे लोगों के लिए नहीं हैं, यह उन विशेष बच्चों के लिए भी उतना ही जरूरी है जो किसी न किसी कमी के साथ पैदा होते हैं।” कितनी हैरानी की बात है कि लोग सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इतना बवाल हुआ। इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातों पर चर्चा करने की बजाय हमें बाकी अन्य जरूरी मुद्दों पर चर्चा करनी चाहिए।सबरीमाला जाना हर एक महिला का अधिकार है।’’



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टेक्सटाइल सेक्टर में वर्कप्लेस पर महिलाओं को बुनियादी सुविधाएं दी गईं।


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कश्मीरी लड़कियां आरजे बन रहीं, जिम चला रहीं; अब पीरियड्स पर बात करने में भी नहीं शर्माती

श्रीनगर. कश्मीर कोइंसान जन्नत मानता है। पर इसी जन्नत में महिलाओं के लिए पीरियड्स पर बात करना और जिम जाने का नाम लेना हमेशा मुश्किलों भरा रहा है। खेल के मैदान में उतरना भी महिला के लिए आसान नहीं रहा। लेकिन धीरे-धीरे ही सही अब यहां की तस्वीर बदल रही है। आगे बढ़ाने के मामले में महिलाएं नजीर पेश कर रही हैं। अब वे पीरियड्स पर खुलकर चर्चा कर रही हैं, जिम जा रही हैं और खेल भी रही हैं। महिलाओं के लिए धरती के इस स्वर्ग में फूल खिलने लगे हैं और बदलाव की खुशबू से कश्मीर की फिजा महकने भी लगी है। पेश है ऐसी ही कुछ महिलाओं की किस्से, जो खुद ही बता रही है बदलाव की कहानी…


डॉ. ऑकाफीन निसार, श्रीनगर के साइदा कदल में हेल्थ सेंटर चलाती हैं
पीरियड्स, एक ऐसा मुद्दा जिसपर कश्मीर के कई इलाकों में आज भी खुलकर बात नहीं की जाती। ऐसे में श्रीनगर के एक छोटे से इलाके साइदा कदल में हेल्थ सेंटर चलाने वाली डॉ. ऑकाफीन निसार ने महिलाओं को जागरूक करने की पहल की है। 29 साल की डॉ. निसार ने ‘पनिन फिक्र' नाम के एक अभियान की शुरुआत की। पनिन फिक्र का मतलब है खुद की फिक्र करना।

डॉ. निसार बताती हैं कि ‘एक महिला सभी की चिंता करती है, लेकिन खुद का ध्यान कभी नहीं रख पाती। मैं चाहती हूं कि इस इलाके की महिलाएं मासिक धर्म को लेकर फैली भ्रांतियों से ऊपर उठें और अपनी चिंता करें। अभियान की शुरुआत जनवरी 2019 में दो नर्सेज और चार आशा कार्यकर्ताओं के साथ एक सब-सेंटर में हुई थी। इस सेंटर के जरिए 4000 की आबादी को सेवाएं दी जाती हैं।’

डॉ. निसार महिलाओं को जागरूक करने के लिए हेल्थ सेंटर चलाती हैं।

2017 में गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज श्रीनगर के डॉक्टर्स ने स्टडी की, जिसमें पाया कि कश्मीरी महिलाओं में माहवारी (पीरियड्स) की समस्याएं आम हैं। 10% महिलाओं को अनियमित माहवारी होती है। पीएमएस (48%) और मेनोरेजिया (24%) के बाद 51% महिलाओं में डिस्मेनोरिया सबसे आम मासिक धर्म डिसऑर्डर था। डॉ. निसार हर वीकेंड अपनेक्लीनिक में एक सेशन भीकरती हैं, जिसके जरिए महिलाओं को उनके मासिक धर्म स्वास्थ्य के बारे में जागरूक किया जाता है।

डॉ. निसार ने टीम के साथ मिलकर रिसर्च की तो पाया कि जागरूकता की कमी और पैड का महंगा होना महिलाओं की परेशानियों का मुख्य कारण है। मुहिम के जरिए टीम ने दो सस्ते पैड बनाने वाली कंपनियों का चुनाव किया। यहां से मिलने वाले दो नैपकिन्स की कीमत 5 रुपए होती है। शुरू में लोगों की प्रतिक्रियाएं जानने के लिए पैकेट्स को फ्री में बांटा गया, लेकिन बाद में इन्हें रियायती दरों पर दिया जाने लगा।डॉ. निसार बताती हैं कि माहवारी को लेकर सामाजिक परेशानियों और अंधविश्वास की कीमत महिलाएं अपने स्वास्थ्य और सुरक्षा के जरिए चुकाती हैं। किसी को तो बदलाव के लिए आगे आना होगा।


महरीन अमीन, जिम संचालक
25 साल की महरीन अमीन, हवाल में इस्लामिया कॉलेज के नजदीक एक जिम चलाती हैं। अमीन बताती हैं कि फिटनेस को आज भी समाज में गंभीरता से नहीं लिया जाता और इसलिए मेरे काम को हर बार अनदेखा कर दिया जाता है। मेरे काम के चलते कई बार मुझे भद्दे कमेंट्स और गालियां मिलती हैं, लेकिन जब तक मेरे क्लाइंट्स और परिवार खुश हैं, मुझे फर्क नहीं पड़ता।

आमीन के क्लब में एक हजार से ज्यादा महिलाएं रजिस्टर हैं और तमाम रोक-टोक के बाद भी यह आंकड़ा रोज बढ़ रहा है। ट्रेनर बताती हैं कि फिटनेस और हेल्थ को लेकर घाटी में लोगों की सोच में बड़ा बदलाव आया है, सभी जान गए हैं कि जिम का मतलब केवल सिक्स पैक एब्स नहीं होता।

महरीन अमीन जिम चलाती हैं।

अंजुमन फारुख, प्रोफेशनल मार्शल आर्ट खिलाड़ी
15 नेशनल मैचों में 14 गोल्ड मेडल और 2 सिल्वर मेडल जीत चुकीं थांग ता(मार्शल आर्ट) प्लेयर और कोच अंजुमन फारुख लड़कियों को सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देती हैं। अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने वाली अंजुमन ने अपने शौक और खेल प्रेम के लिए सामाजिक परेशानियां उठाईं। बीमार पिता की असमय मौत के बाद घर में आर्थिक मुश्किलें बढ़ गईं थीं, लेकिन अंजुमन ने इसे भी अपनी ताकत बनाया।


27 साल की चैंपियन बताती हैं,‘लड़की होने के कारण मुझे कई दिक्कतें हुईं पर मैंने कभी हार नहीं मानी। थांग ता मेरा जुनून था, जो बाद में मेरा पेशा भी बना।’अंजुमन फिलहाल एक सरकारी स्कूल में फिजिकल ट्रेनिंग इंस्ट्रक्टर हैं और लड़कियों को ट्रेनिंग देती हैं। उन्होंने साल 2011 में पहली बार वर्ल्ड कप खेला था और गोल्ड जीतने वाली पहली सीनियर लड़की थीं।

महक जुबैर, रेडियो जॉकी
रेडियो-शो खुश-खबर की होस्ट महक जुबैर को लोग आरजे महक और महक मिर्ची के नाम से भी जानते हैं। महक रेडियो मिर्ची एफएम में मॉर्निंग शो को होस्ट करती हैं। अपनी जॉब के बारे में बताते हुए महक ने कहा, यह दुनिया का सबसे अच्छा काम है, लेकिन उतना ही चुनौतीपूर्ण भी। आप लगभग हर दिन ऑन एयर होते हैं, फिर चाहे इलाके में मौसम खराब हो या हड़ताल हो। शो खुश-खबर में महक कश्मीर और उसके नागरिकों के बारे में अच्छी बातें पेश करती हैं।

रेडियो-शो खुश-खबर की होस्ट महक जुबैर

महक कहती हैं कि उथल-पुथल से भरी घाटी में हर रोज अच्छी खबरें निकालने में बहुत परेशानी होती थी। एक न्यूज चैनल के साथ बतौर सिटीजन जर्नलिस्ट करियर की शुरुआत करने वाली महक रेडियो जॉब से बेहद खुश हैं। वो बताती हैं कि मुझे बात करना बहुत पसंद है और रेडियो इसका सबसे अच्छा जरिया है।



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मार्शल आर्ट प्लेयर और कोच अंजुमन फारुख लड़कियों को सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देती हैं।


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भारत में साल भर में करीब 1 करोड़ टूरिस्ट आते हैं, उसका 20% तक मार्च-अप्रैल में आ जाते हैं; वीजा पर प्रतिबंधों से सरकार को 33 से 34 हजार करोड़ का नुकसान संभव

नई दिल्ली.कोरोनावायरस केडर से दुनिया सहमी हुई है। कोरोना को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने 15 अप्रैल तक दुनियाभर के लोगों के वीजा पर प्रतिबंध लगा दिया है। मतलब, 15 अप्रैल तक अब कोई भी विदेशी व्यक्ति भारत नहीं आ सकेगा। हालांकि, डिप्लोमैटिक और एम्प्लॉयमेंट वीजा को इस दायरे से बाहर रखा गया है। सरकार के इस फैसले का सबसे ज्यादा असर टूरिज्म सेक्टर पर पड़ेगा। पर्यटन मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि भारत में सालभर में जितने विदेशी पर्यटक आते हैं, उनका करीब 15 से 20% अकेले मार्च-अप्रैल में ही आते हैं। 2019 में मार्च-अप्रैल के दौरान 17 लाख 44 हजार 219 विदेशी पर्यटक भारत आए थे। जबकि, पूरे सालभर में 1.08 करोड़ पर्यटकों ने भारत की यात्रा की थी। वीजा रद्द होने से सरकार को 33 से 34 हजार करोड़ रुपए का नुकसान भी हो सकता है। पिछले साल मार्च-अप्रैल में सरकार को टूरिज्म सेक्टर से 33 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की कमाई हुई थी।

बिजनेस: 2019 में जितनी कमाई हुई, उसकी 16% अकेले मार्च-अप्रैल महीने में हुई

टूरिज्म सेक्टर से सरकार को हर साल करीब 2 लाख करोड़ रुपए की कमाई होती है। 2019 में सरकार को विदेशी पर्यटकों से 2.10 लाख करोड़ रुपए की कमाई हुई थी। इसमें से 16% यानी 33 हजार 186 करोड़ रुपए की कमाई अकेले मार्च-अप्रैल में हुई थी। पिछले 5 साल के आंकड़े भी यही कहते हैं कि सरकार को विदेशी पर्यटकों से सालभर में जितनी कमाई होती है, उसमें से 15 से 20% की कमाई अकेले मार्च-अप्रैल में ही हो जाती है। मार्केट एक्सपर्ट्स कहते हैं कि यदि पिछले साल के आंकड़ों को देखें तो मार्च-अप्रैल में पर्यटकों के नहीं आने से सरकार को 33 हजार से 34 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो सकता है। ये कमाई सरकार को फॉरेन करंसी में होती है।

कोरोना की दहशत:इस साल जनवरी में पिछले 10 साल में सबसे कम रही पर्यटकों की ग्रोथ

कोरोना का असर दुनियाभर के टूरिज्म सेक्टर पर पड़ा है। दुनिया के प्रमुख पर्यटक स्थल सूने हो गए हैं। भारत में भी इसका असर देखने को मिल रहा है। पर्यटन मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि इस साल जनवरी में 11.18 लाख विदेशी पर्यटक ही आए, जबकि जनवरी 2019 में 11.03 लाख पर्यटक भारत आए थे। जनवरी 2019 की तुलना में जनवरी 2020 में विदेशी पर्यटकों की संख्या भले ही बढ़ी है, लेकिन ग्रोथ रेट 10 साल में सबसे कम रहा। जनवरी 2020 में विदेशी पर्यटकों का ग्रोथ रेट सिर्फ 1.3% रहा। जबकि, जनवरी 2019 में यही ग्रोथ रेट 5.6% था।

10 साल में जनवरी में आने वाले पर्यटकों की संख्या और ग्रोथ रेट

साल पर्यटकों की संख्या ग्रोथ रेट
जनवरी 2020 11.18 लाख 1.3%
जनवरी 2019 11.03 लाख 5.6%
जनवरी 2018 10.45 लाख 8.4%
जनवरी 2017 9.83 लाख 16.5%
जनवरी 2016 8.44 लाख 6.8%
जनवरी 2015 7.90 लाख 4.4%
जनवरी 2014 7.57 लाख 5.2%
जनवरी 2013 7.20 लाख 5.8%
जनवरी 2012 6.81 लाख 9.4%
जनवरी 2011 6.22 लाख 9.5%

राहत की बात: जनवरी 2020 में विदेशी पर्यटकों से होने वाली कमाई 12.2% बढ़ी

भारत आने वाले विदेशी पर्यटकों की ग्रोथ रेट में भले ही कमी आई हो, लेकिन उनसे होने वाली कमाई बढ़ी है। जनवरी 2020 में सरकार को विदेशी पर्यटकों से 20 हजार 282 करोड़ रुपए की कमाई हुई, जो पिछले साल से 12.2% ज्यादा रही। जबकि, जनवरी 2019 में सरकार को 18 हजार 79 करोड़ रुपए की कमाई हुई थी, जो जनवरी 2018 की तुलना में सिर्फ 1.8% ही ज्यादा थी। हालांकि, फरवरी के बाद कोरोनावायरस के मामले बढ़ने और मार्च-अप्रैल में वीजा पर प्रतिबंध लगने की वजह से विदेशी पर्यटकों की संख्या में कमी आनी तय है। इससे सरकार की आमदनी पर भी असर पड़ेगा।

पांच साल में जनवरी महीने में सरकार को पर्यटन सेक्टर से होने वाली आमदनी

साल कमाई ग्रोथ रेट
जनवरी 2020 20,282 12.2%
जनवरी 2019 18,079 1.8%
जनवरी 2018 17,755 9.9%
जनवरी 2017 16,135 18%
जनवरी 2016 13,671 13%

सबसे ज्यादा पर्यटक दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरते हैं, लेकिन घूमने के लिए तमिलनाडु पसंदीदा जगह
पर्यटन मंत्रालय की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक, विदेशों से आने वाले पर्यटक सबसे ज्यादा दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरते हैं। 2018 में दिल्ली एयरपोर्ट पर 30.43 लाख पर्यटक उतरे थे। लेकिन पर्यटकों को घूमने के लिए तमिलनाडु सबसे पसंदीदा जगह है। 2018 में 60.74 लाख विदेशी पर्यटक तमिलनाडु गए थे। दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र और तीसरे पर उत्तर प्रदेश है।

5 एयरपोर्ट या इंटरनेशनल चेक पोस्ट, जहां सबसे ज्यादा विदेशी पर्यटक उतरते हैं

एयरपोर्ट/ इंटरनेशनल चेक पोस्ट पर्यटकों की संख्या
दिल्ली 30.43 लाख
मुंबई 16.36 लाख
हरिदासपुर 10.37 लाख
चेन्नई 7.84 लाख
बेंगलुरु 6.08 लाख



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India Tourist Visa | Coronavirus India Tourist Visas Ban Latest Updates On India ForeignTourist Arrivals Research and Statistics


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कोरोना के कालखंड में बॉलीवुड की किस्सागोई

अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी अभिनीत फिल्म ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ के अंतिम दृश्य में एक अपराध दल के सभी सदस्य मार दिए जाते हैं। नायक एक मरियल सदस्य को जीवित छोड़ देता है, उससे कहता है कि अब वह सरगना पद पर विराजमान हो सकता है। कमजोर सदस्य दुख जाहिर करता है कि वह किस पर शासन करे? सारे सदस्य मर चुके हैं, हथियार टूटे हुए हैं, कुरुक्षेत्र में लड़े गए 18 दिवसीय युद्ध के पश्चात केवल महिलाएं, उम्रदराज लोग और कमजोर बच्चे ही बचे थे। युद्ध में शामिल सभी राज्यों के खजाने खाली हो चुके थे।

शस्त्र बेचने वालों के पास भव्य भवन और अकूट धन भरा था, परंतु रोटी नहीं थी। बाजार टूट गए थे, व्यापारी अत्यंत दुखी थे। सभी राज्यों में मरघट वाली शांति भांय-भांय कर रही थी। ‘बुड्‌ढा होगा तेरा बाप’ का नायक रंगीन मिजाज है। वहां लंपट नहीं है, परंतु छेड़छाड़ में उसे मजा आता है। उसके स्वभाव को ठीक से नहीं समझ पाने वाली पत्नी उससे अलग हो जाती है। नायक अपने पुत्र को बचा लेता है और पत्नी से कहता है कि अब उस बुड्ढे को विदा होने दो। नायिका जवाब देती है...‘बुड्‌ढा होगा तेरा बाप’। सुखांत फिल्म है।


बहरहाल, एक प्रांत के शिखर नेता ने बयान दिया है कि उनके प्रांत में आईपीएल क्रिकेट होगा, परंतु दर्शक नहीं होंगे, क्योंकि कोरोना वायरस के इस भयावह दौर में भीड़ जमा होने की इजाजत नहीं दी जा सकती। स्टेडियम में सन्नाटा हो, कोई ताली न बजाए, त्रुटि होने पर गाली न दे तो खेलने का क्या मजा? फिल्म जगत में फिल्मों का प्रदर्शन टाला जा रहा है। हर क्षेत्र में प्राकृतिक आपदा हो, महामारी हो या कोई भी संकट हो, अधिक कष्ट आम आदमी पाता है, परंतु कोरोना वायरस किसी भेद को नहीं समझता।

साधन संपन्न और साधनहीन दोनों ही वर्ग वायरस से प्रभावित हो रहे हैं। कोरोना पूरे विश्व को एक गांव में बदल सकता है। याद आती है ‘मेरा नाम जोकर’ के गीत की पंक्तियां- ‘खाली खाली कुर्सियां हैं, खाली-खाली डेरा है, खाली खाली तंबू है, बिना चिड़िया के रैन बसेरा है यह घर न तेरा है न मेरा है।’


विगत कुछ वर्षों से अवाम गैरजरूरी चीजें खरीद रहा है। महंगे मोबाइल सस्ते मोबाइल से अधिक बिक रहे हैं। हमारे इंदौर के मित्र महेश जोशी कहते हैं कि खरीदने की प्राथमिकता को उल्टा कर दिया गया है। उपभोक्तावाद का धीमा जहर अब असर दिखा रहा है। यह तथ्य याद दिलाता है फिल्म ‘चोरी चोरी’ के शैलेंद्र रचित गीत की- ‘जो दिन के उजाले में न मिला दिल ढूंढ रहा है ऐसे सपने को, इस रात की जगमग में खोज रही हूं अपने को।’ काबिले गौर है शब्द ‘जगमग’ का उपयोग।


भारत में गर्मी के आगमन से कोरोना वायरस बेअसर हो सकता है। कोरोना से बचाव की दवा खोजी जा रही है। मनुष्य कभी हार नहीं मानता। ज्ञातव्य है कि ‘डेकोमेरॉन’ नामक गल्प का स्पष्ट सार है कि प्लेग फैलने के कारण कुछ लोग पहाड़ की एक गुफा में बस गए हैं। समय व्यतीत करने के लिए हर सदस्य को एक कहानी सुनानी होती है।

इन कथाओं का संग्रह है ‘डेकोमेरॉन’। अंग्रेजी के पहले कवि चौसर की ‘पिलग्रिम्स प्रोग्रेस’ भी तीर्थ यात्रा पर जा रहे यात्रियों द्वारा कथा कहने की बात करती है। कथा कहने और और सुनने से भी जिया जा सकता है। आज हम खोखली गहराइयों में जी रहे हैं। सियासत में खो-खो खेला जा रहा है और अवाम आपसी कबड्डी और खो-खो में रमा हुआ है।



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प्रतीकात्मक फोटो।


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मॉडर्न पैरेंटिंग, फिजिक्स की तरह होती है

न्यूटन के तीसरे नियम के अनुसार प्रत्येक क्रिया के लिए, एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। और यह कम से कम आधुनिक पैरेंटिंग के मामले में सही प्रतीत होता है।‘क्या आप प्रश्न-पत्र लीक कर सकते हैं?’ यह सवाल उन कई अनपेक्षित सवालों में से एक था, जो इंटरमीडिएट सार्वजनिक परीक्षाओं के दौरान छात्रों को तनाव से निपटने में मदद करने के लिए आंध्र प्रदेश राज्य शिक्षा बोर्ड के साथ काम करने वाले काउन्सलर्स से पूछे गए थे। ऐसा एक और सवाल था जिसने मनोवैज्ञानिकों को चौंका दिया था कि ‘मैंने पूरा साल पबजी खेलने में बर्बाद कर दिया, अब मुझे अच्छे मार्क्स के लिए क्या करना चाहिए?’


ऐसा किसी एक राज्य तक ही सीमित नहीं है। कई राज्यों के छात्र तनावग्रस्त बच्चों की मदद करने के लिए राज्यों द्वारा जारी किए गए स्थानीय मनोवैज्ञानिकों के नंबर पर कॉल लगाते हैं, जिनका एक ही उद्देश्य होता है- अच्छे मार्क्स स्कोर करने का आसान तरीका क्या है, जबकि कुछ बच्चे किसी भी कीमत पर केवल पास होना चाहते हैं। ये मनोवैज्ञानिक स्वीकारते हैं कि अकादमिक रूप से कमजोर छात्र ही मदद नहीं मांग रहे, बल्कि अच्छे मार्क्स वाले छात्र भी मदद ले रहे हैं, जो वास्तव में काफी तनाव में हैं।

कई ग्रामीण क्षेत्रों के ऐसे छात्र भी हैं जो मनोवैज्ञानिकों से यह जानना चाहते हैं कि वे माता-पिता या शिक्षकों की अपेक्षाओं पर खरे उतर पाएंगे या नहीं। एक छात्र कॉल पर यह कहते हुए रोने लगा कि वह गणित में हमेशा टॉप करता है, इसलिए उसके शिक्षक को उससे बोर्ड परीक्षाओं में भी ज्यादा नंबर लाने की उम्मीदें हैं। दिलचस्प यह है कि 10वीं की बोर्ड परीक्षाओं में राज्य के टॉपर्स को डर था कि वे 12वीं की परीक्षा में टॉप नहीं कर पाएंगे।

हालांकि कॉल करने का समय दोपहर 3 बजे से शाम 8 बजे के बीच है, लेकिन कई बार छात्र आधी रात को फोन करते हैं, ताकि उनके माता-पिता को पता न चले कि वे तथाकथित ‘बाहरी लोगों’ से मदद मांग रहे हैं। कुछ बच्चों ने केवल जोर से रोने और परीक्षा के लिए अपने डर को भगाने के लिए फोन किया। आपने कभी सोचा कि छात्रों के बीच कुछ वर्षों में यह नया भ्रम क्यों आ गया। क्यों बच्चे बेहतर अंकों के लिए शॉर्टकट ढूंढ रहे हैं। दोनों ही स्थितियों में छात्रों के लिए अंक मायने रखते हैं।


हाल ही में मेरी उन माता-पिता के साथ मीटिंग थी, जिनके बच्चे अभी नर्सरी या किंडरगार्टन में हैं। आप हैरान हो जाएंगे कि उन्होंने मुझसे कैसे-कैसे सवाल पूछे। जैसे कि ‘पिछले एक महीने से नर्सरी में होने के बावजूद बच्चा माता-पिता की मदद के बिना ए टू जेड नहीं बोल पाता’। दूसरे माता-पिता का कहना था कि ‘मेरा बेटा अंग्रेजी में पहले चार अल्फाबेट्स से अधिक क्यों नहीं लिख पा रहा है? सवाल सिर्फ अकादमिक ही नहीं थे।

दूसरे माता-पिता की भी सुनें: ‘मेरे बच्चे को फैंसी ड्रेस में पुरस्कार क्यों नहीं मिला। आखिरकार वो पुरस्कार जीतने के लिए ही तो स्कूल जाता है।’ इतना ही नहीं एक मां ने स्कूल प्रबंधन के साथ जमकर लड़ाई की, जब उनकी तीन वर्षीय बेटी की नर्सरी कक्षा के सभी 40 बच्चों के एक डांस के कार्यक्रम में बच्ची को पीछे खड़ा किया गया था। उनका सवाल यह था कि उनकी बेटी को सबसे आगे खड़े करने की बजाय डांस ग्रुप के बीच में क्यों खड़ा किया गया था।


अब मुझे बताएं कि अगर हम माता-पिता ही इस तरह बर्ताव करेंगे, यह सुनिश्चित करने के लिए कि हमारे बच्चे डांस प्रोग्राम में सबसे आगे खड़े हों, तो कल्पना कीजिए कि बच्चे स्कूल की परीक्षा देते वक्त कितना दबाव महसूस करते होंगे।

फंडा यह है कि पैरेंटिंग, फिजिक्स की तरह है। माता-पिता की हर क्रिया की एक समान प्रतिक्रिया होती है। यदि आप पहले दिन से ही हर काम में पहले नंबर पर आने को महत्व देंगे, तो स्कूल खत्म होने तक सिर्फ अंक ही महत्वपूर्ण रह जाएंगे। फैसला आपका है।



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नैतिक विपक्षियों पर ही प्रभावी हैं गांधी सिद्धांत

हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे अहम कदम दांडी मार्च को 90 साल हो गए हैं। ब्रिटिश राज के खिलाफ महात्मा गांधी द्वारा शुरू किया गया यह सबसे सफल अवज्ञा आंदोलन था। ब्रिटिश शासन ने उस समय भारतीयों के नमक बनाने और बेचने पर प्रतिबंध व भारी कर लगा दिया था, जिससे लोग महंगा और विदेशी नमक लेने को मजबूर थे। इस नमक कर का विरोध तो 19वीं सदी में ही शुरू हो गया था, लेकिन 12 मार्च 1930 को गांधीजी द्वारा आंदोलन शुरू करने से ही सफलता हासिल हुई।

गांधीजी ने साबरमती के अपने आश्रम से दांडी के लिए यात्रा शुरू की। 385 किलोमीटर की इस यात्रा में उनके साथ कई दर्जन अनुयायी भी शामिल थे। वे अपने हर पड़ाव पर लोगों को संबोधित करते थे और उनके साथ चलने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जाती थी। वह 5 अप्रैल 1930 को समुद्र के किनारे दांडी पहुंचे और अगले दिन 6 अप्रैल को उन्हाेंने मुट्‌ठीभर नमक बनाकर प्रतिकात्मक रूप से कानून का उल्लंघन किया। यह नागरिक अवज्ञा का बहुत ही प्रभावी काम था।


इस नाटकीय घटनाक्रम ने देश और दुनिया का ध्यान खींचा। गांधीजी ने नमक कर के खिलाफ दो महीने तक आंदोलन किया और अन्य लोगों को भी नमक कानून तोड़ने के लिए उकसाया। हजारों लोगाेंको गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। मई में गांधीजी को भी गिरफ्तार किया गया। इससे दसियों हजार लोग इस आंदोलन में शामिल हो गए और 21 मई 1930 को करीब 2500 सत्याग्रहियों पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया।

साल खत्म होते-होते 60 हजार लोगों को जेलों में डाल दिया। बाद में ब्रिटिश शासन को अहसास हुआ कि दमन और जेल में डालने से कुछ लाभ नहीं है। जनवरी, 1931 में गांधीजी को रिहा कर दिया गया और लॉर्ड इरविन से वार्ता शुरू हुई। 5 मार्च 1931 को हुए गांधी-इरविन समझौते के बाद गांधीजी ने सत्याग्रह समाप्त कर दिया। उनकी नैतिक विजय हो चुकी थी।

गांधीजी के दांडी मार्च को याद करने की वजह यह है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज कई तरह से जवाहरलाल नेहरू के 15 अगस्त 1047 की मध्यरात्रि को दिए गए प्रसिद्ध भाषण ‘नियति से साक्षात्कार’ के शब्दों की प्रतिध्वनि कर रही है। तब उन्होंने महात्मा को ‘भारत की भावना का अवतार’ बताते हुए कहा था कि उनके संदेश को भावी पीढ़ियां याद रखेंगी। संदेश क्या था? महात्मा दुनिया के पहले सफल अहिंसा आंदोलन के अप्रतिम नेता थे। उनकी आत्मकथा थी ‘सत्य के प्रयोग’।

दुनिया की कोई भी डिक्शनरी सत्य के अर्थ को उतनी गहराई से परिभाषित नहीं करती, जितना गांधीजी ने किया। उनका सत्य उनके दृढ़ मत से निकला था। यानी यह केवल सटीक नहीं था, लेकिन यह न्यायपूर्ण था इसलिए सही था। सत्य को अन्यायपूर्ण या असत्य तरीकों से नहीं पाया जा सकता। यानी अपने विरोधियों के खिलाफ हिंसा करके। इसी तरीके को समझाने के लिए गांधीजी ने सत्याग्रह की खोज की।

वह इसके लिए अंग्रेजी शब्द पैसिव रजिस्टेंस (निष्क्रिय विरोध) को नापसंद करते थे, क्योंकि सत्याग्रह के लिए निष्क्रियता नहीं, सक्रियता की जरूरत थी। अगर आप सत्य में विश्वास करते हो और उसे पाने की परवाह करते हो तो गांधीजी कहते थे कि आप निष्क्रिय नहीं रह सकते, आपको सत्य के लिए दुख उठाने के लिए सक्रिय तौर पर तैयार रहना होगा। अहिंसा विपक्षी को चोट पहुंचाए बिना सत्य को साबित करने का तरीका था, बल्कि इसके लिए खुद चोट खाई जा सकती थी।

गांधीजी ने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए यह रास्ता चुना और यह प्रभावी रहा। दांडी तो सिर्फ इसका प्रतिमान था। जहां छिटपुट चरमपंथ और उदार संवैधानिकता दोनों ही निष्प्रभावी रहे, वहां गांधीजी स्वतंत्रता का मुद्दा लोगों तक ले गए। उन्होंने लोगों को वह तकनीक दी, जिसका अंग्रेजों के पास कोई जवाब नहीं था। हिंसा से दूर रहकर गांधीजी ने पहले ही बढ़त ले ली थी।

अहिंसात्मक रूप से कानून को तोड़कर उन्होंने इसके अन्याय को भी दिखा दिया था। खुद पर लगाए गए दंडों को स्वीकार करके उन्होंने बंदी बनाने वालों का ही उनकी क्रूरता से सामना कराया। खुद पर ही भूख हड़ताल जैसे कष्ट थोपकर उन्होंने दिखाया कि वह सही वजह से की जा रही अवज्ञा के लिए किस हद तक जाने को तैयार हैं। अंत मेंउन्होंने अंग्रेजों के शासन को ही असंभव बना दिया।


आज के भारत में गांधीजी और दांडी से हमें क्या सीख मिलती है? एक चीज को समझना होगा कि गांधीजी का रास्ता उन्हीं विपक्षियों के खिलाफ काम करता है, जिन्हें नैतिक अधिकार खाेने की चिंता होती है, एक सरकार जो घरेलू और अंतराष्ट्रीय राय के प्रति उत्तरदायी हो और हार पर शर्मसार होती हो। गांधीजी की अहिंसात्मक नागरिक अवज्ञा की ताकत यह कहने में निहित है : ‘यह दिखाने के लिए कि आप गलत हैं, मैं खुद को दंडित करूंगा।’

लेकिन इसका उन लोगों पर कोई असर नहीं होता, जो इस बात में इच्छुक ही नहीं हैं कि वे गलत हैं और पहले से ही अपने साथ असहमति की वजह से आपको दंडित करना चाहते हैं। आपके खुद को सजा देने की इच्छा तो उनके लिए विजय का सबसे आसान तरीका होगा। नैतिकता के बिना गांधीवाद वैसा ही है जैसे कि सर्वहारा वर्ग के बिना मार्क्सवाद। इसके बाद भी जिन लोगों ने यह तरीका अपनाया वह उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और नैतिकता है। जबरन हड़ताल, पाखंडी क्रमिक धरना और धरनाें के दुरुपयोग से यही पता चलता है कि दुनिया गांधीजी के सत्य के विचार से कितना गिर गई है।


इससे गांधीजी की महानता कम नहीं हुई है। जब, दुनिया फासीवाद, हिंसा और युद्ध में बंट रही थी, महात्मा ने हमें सत्य, अहिंसा और शांति का मतलब सिखाया। उन्हाेंने ताकत का मुकाबला सिद्धांतों से करके उपनिवेशवाद की विश्वसनीयता खत्म कर दी। उन्हाेंने ऐसे व्यक्तिगत मानदंडों को हासिल किया, जिसकी बराबरी शायद ही कोई कर सके। वह एक ऐसे दुर्लभ नेता थे, जिनका दायरा समर्थकों तक सीमित नहीं था। उनके विचारों की मौलिकता और उनकी जिंदगी के उदाहरण आज भी दुनिया को प्रेरणा देते हैं। लेकिन, हमें आज भी गांधीजी से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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महात्मा गांधी (फाइल फोटो।)


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शिशु के पहले दो सालों में निवेश देश के लिए जरूरी

विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ और लांसेट की रिपोर्ट के मुताबिक भारत सहित दुनिया के तमाम देश इस बात को तरजीह नहीं दे रहे हैं कि जन्म के पहले दो सालों में नवजातों पर निवेश देश की खुशहाली का बड़ा कारण बन सकता है। लांसेट की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अगर इन शिशुओं के पैदा होने के दो सालों में इनके पालन-पोषण पर समुचित ध्यान दिया जाए तो उनका भावी जीवन उनकी सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक अक्षमताओं से बच सकता है।

इससे गरीब-अमीर के बीच जन्मजात विभेद पर भी अंकुश पाया जा सकता है। आज दुनिया में 25 करोड़ ऐसे बच्चे हैं, जो पूर्ण विकास हासिल नहीं कर पाते। इनमें से बड़ी संख्या भारत के बच्चों की है। यहां आज भी हर पांचवां बच्चा गैर-प्रशिक्षित दाइयों द्वारा जना जाता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत अपने बच्चों की खुशहाली और स्वास्थ्य के पैमाने पर दुनिया के 180 देशों में 131वें स्थान पर है। तथाकथित ग्रोथ और गरीबी हटाने के दिखावटी उपायों से पांच साल से कम उम्र के करोड़ों बच्चों के विकास को भारी ख़तरा है।

अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसी (यूएसएड) की रिपोर्ट के अनुसार मध्याह्न भोजन की योजना के कारण भारत के स्कूलों में बच्चे तो बढ़े हैं, लेकिन वे शिक्षार्जन शायद ही कर पा रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण बिहार में देखने को मिला, जहां शिक्षकों की हड़ताल के कारण मध्याह्न भोजन बंद हुआ तो बच्चों की स्कूलों में उपस्थिति भी कम हो गई। रिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश में चार में से तीन बच्चे ब्लैकबोर्ड पर लिखे दो संयुक्त मात्र शून्य अक्षरों को मौखिक रूप से पढ़ नहीं सकते।

मौखिक रीडिंग प्रवाह (ओरल रीडिंग फ्लूएंसी) जानने के इस अध्ययन में बताया गया कि इसी वजह से इन बच्चों में बड़े होने पर भी शिक्षा ग्रहण करने की क्षमता का विकास नहीं होता है और वे पीछे रह जाते हैं। नतीजतन आगे की पढ़ाई बाधित हो जाती है। अगर वे किसी तरह डिग्री ले लेते हैं तो नौकरी की दौड़ में काफी पीछे रह जाते हैं। ग्रामीण भारत के बच्चे इसके सबसे ज्यादा शिकार होते हैं और आजीविका के लिए वे कृषि में ही ठहर जाते हैं, जिनसे दो वक्त की रोटी भी उपलब्ध नहीं हो पाती। लांसेट की सिफारिश है कि सरकारें अगर बच्चों की पैदाइश के दो साल तक निवेश करें तो गरीबी खत्म हो सकती है।



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प्रतीकात्मक फोटो।


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जीवन में खूबियों को जोड़ते चलिए

अच्छे ड्राइवर अपनी गाड़ी को सुबह-सुबह थोड़ी देर स्टार्ट करके रखते हैं। उसके बाद उसे बढ़ाते हैं, गति देते हैं। उनका मानना है गाड़ी यदि बिना चले थोड़ी देर स्टार्ट रहे तो उसके इंजन में ऑइल का, हर तत्व का प्रॉपर सर्कुलेशन हो जाता है और इससे इंजन मजबूत रहता है। बस, अब इस बात को जोड़िए अपने शरीर से। हमें अपने शरीर के इंजन को सुबह-सुबह ऐसे ही स्टार्ट करना चाहिए बिना गति दिए।

जागने के बाद एकदम से पलंग मत छोड़िए। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि बिस्तर पर पड़े रहें। जब भी पलंग से उतरें, इस शरीर के भीतर कुछ ऐसा है, जिसमें ऊर्जा को बहने दीजिए, फिर उसका उपयोग कीजिए। दार्शनिकों ने कहा है इस शरीर को श्वान से सीखना चाहिए।

कुत्ते में जो छह खूबियां होती हैं, वो हमारे शरीर में भी होना चाहिए। पहली अधिक खाने की शक्ति रखना, दूसरी अभाव की स्थिति में थोड़े में ही संतोष करना। कुत्ते की तीसरी विशेषता है गहरी नींद में सोना और चौथी गहरी नींद में सोते हुए भी सजग रहना। पांचवीं स्वामीभक्ति और छठी होती है वीरतापूर्वक शत्रुओं का सामना करना।

मनुष्य हर दिन अपने भीतर इन खूबियों का समावेश कर सकता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य कुत्ते जैसा हो जाए। बस, मनुष्य एक कुत्ते की विशेषताओं को स्वीकार करे, क्योंकि वह भी एक प्राणी है। जैसे ही दूसरे प्राणियों की अच्छी बातें या खूबियां अपने से जोड़ते हैं, आप प्रकृति के सच्चे प्रतिनिधि होते हैं..।



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‘मध्य प्रदेश वायरस’ महाराष्ट्र में भी पहुंचेगा क्या?

दुबई से प्रवास कर लौटी पुणेकर दंपति में कोरोना वायरस के लक्षण सामने आए हैं। उनके बाद उनकी बेटी, उन्होंने जिस कैब में सफर किया उसका चालक, विमान के सहयात्री में भी कोरोना वायरस की पुष्टि हुई है। इसके बाद पुणे सहित महाराष्ट्र दहल गया। सभी ओर यह चर्चा है, लेकिन राजकीय उठापटक की चर्चा का स्तर अलग ही है।


कोरोना वायरस से भी ज्यादा ‘एमपी वायरस’ के बारे में महाराष्ट्र में ज्यादा बोला जा रहा है। विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद से महाराष्ट्र में दहशत का माहौल है। 21 अक्टूबर 2019 को वोटिंग हुई, 24 अक्टूबर 2019 को परिणाम आया। सरकार ने शपथ ली 28 नवंबर को। मंत्रिमंडल ने आकार लिया 30 दिसंबर को। यानी 21 सितंबर को आचार संहिता लागू हुई और 30 दिसंबर तक, यानी पूरे 100 दिन तक महाराष्ट्र में सरकारी कामकाज ठप ही रहा। इस अवधि में सरकार स्थापित हुई और इस दौरान एक सरकार अस्तित्व में आने के साढ़े तीन दिन में ही ढह गई।


भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं। लेकिन, वह आज विरोधी पक्ष बना हुआ है। शिवसेना ने भाजपा के साथ चुनाव लड़ा, उसका अब मुख्यमंत्री है। मणिपुर, मेघालय, गोवा जैसे छोटे राज्यों में भाजपा ने सत्ता स्थापित करने के लिए पूरा जोर लगा दिया, ऐसे में महाराष्ट्र जैसा बड़ा राज्य कैसे छोड़ दिया, यह प्रश्न सबको परेशान कर रहा है। इस पर उत्तर यही है कि ऐसा प्रयत्न उन्होंने करके देखा है। लेकिन रात में बनी सरकार के गिरने से देवेंद्र फड़नवीस औंधे मुंह गिरे। तब भाजपा ने कोशिशें बंद कर दीं और इस सरकार में ‘ऑल इज वेल’ है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है।


मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के बाद राजस्थान, महाराष्ट्र में भी पुनरावृत्ति हो सकती है, ऐसी चर्चा शुरू हो गई है। महाराष्ट्र में भाजपा ही ‘सिंगल लार्जेस्ट पार्टी’ है। इस वजह से यहां यह कोशिश तो होगी ही, ऐसा कइयों को लगता है। ऐसी चर्चा करने से पहले आंकड़ों को ध्यान में रखना होगा। मध्य प्रदेश में कुल 230 सीटें हैं। दो विधायकों के निधन की वजह से सदन की प्रभावी संख्या है 228 सीटों की। ऐसे में जादुई नंबर 115 हो जाता है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ 22 विधायक हैं, जिससे प्रभावी संख्या रह गई- 206 सीटें। ऐसे में 104 जादुई अंक होगा और भाजपा के पास अपने 107 विधायक तो हैं ही।


ऐसा प्रयोग महाराष्ट्र में करना आसान नहीं। भाजपा सिंगल लार्जेस्ट पार्टी है जरूर, लेकिन बहुमत से काफी दूर है। जादुई अंक है 145 सीटों का और भाजपा के पास 105 विधायक ही हैं। इस वजह से 40 विधायक जुटाना अथवा सदन की प्रभावी सदस्य संख्या को इस कदर घटाना संभव नहीं है। किसी भी पार्टी में तोड़फोड़ मचाने के लिए दो-तिहाई विधायक साथ लाना होंगे। पर्याय है तो विधायकों के इस्तीफे लेने का। इसके लिए विधानसभा में सदस्यों की प्रभावी संख्या को 210 तक लाना होगा।

इसके लिए 78 विधायकों से इस्तीफा लेना असंभव है। महाविकास आघाड़ी सरकार में नाराजगी भरपूर है। मंत्री पद न मिलने से कांग्रेस के विधायक संग्राम थोपटे ने बवाल मचाया था। शिवसेना में दिवाकर रावते नाराज हैं। राकांपा में अजित पवार, जयंत पाटिल जैसे दो गुट हैं। चुनावों में आयाराम-गयाराम का जो दौर चला और भाजपा में ‘इनकमिंग’ का दौर सभी ने देखा है। इस वजह से कोई धोखा नहीं देगा, यह सोचना भी संशय पैदा करता है। किसी पार्टी ने अधिकृत तौर पर भाजपा के साथ जाने का स्टैंड लिया तो ही महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार आ सकती है। फिर भी इसकी संभावना काफी कम है। लेकिन पिक्चर अभी बाकी है!’



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विकास को परंपरा की दृष्टि से अपनाने की जरूरत

समाज में परिवर्तन इतिहास की शक्तियों के अधीन होता है और समाज विज्ञान उसे मानवीय कर्तृत्व की परिधि में समझने-समझाने की कोशिश में लगा रहता है। इसके लिए आज भी जिन मुहावरों का उपयोग किया जाता है, वे उपनिवेश की छाया में गढ़े गए और आधुनिकतावादी यूरो-अमेरिकी समझ को सार्वभौमिक मानते हुए अपनाए गए। इसको उत्कृष्ट जीवन का खाका मानकर लागू किया गया। औपनिवेशिक काल में अंग्रेज ‘आधुनिक’ और भारतीय ‘पिछड़े’ व ‘परंपरावादी’ ठहराए गए।

जबकि, तर्क और ज्ञान पश्चिम का जन्मजात अधिकार नहीं था। लेकिन, भारतीय सभ्यता का समस्त संचित ज्ञान अप्रासंगिक हो गया। इस नई दृष्टि में एक यांत्रिक दुनिया की अवधारणा स्वीकार की गई और सृष्टि के विकास में बलशाली को जीने का अधिकार माना गया। इसके परिणामस्वरूप भीषण नरसंहार भी हुए। इस सोच की परिणति समाज को एक उद्योग मानने में हुई और लोभ तथा भोग हावी होते गए।


काल क्रम में आधुनिक भारतीय बौद्धिकता का उदय 19वीं सदी के आरम्भ में सांस्कृतिक जागरण, मध्य वर्ग के उदय और साक्षरता की वृद्धि के साथ हुआ। भारत के विभिन्न क्षेत्रों के जननेता जिन्होंने स्वतंत्रता की महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ाया, उन्होंने भविष्य के भारत की छवि गढ़ी और गांधीजी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन द्वारा 1947 में देश को आजाद किया। तब विचार में भी स्वराज की बात उठी थी, परंतु अनसुनी ही रह गई। गणतंत्र की स्थापना के साथ संविधान ने सामाजिक जीवन में ढांचागत बदलाव शुरू किया।

सभी नागरिकों को मताधिकार देने के साथ ही बहुत सी पुरानी संस्थाओं को आधिकारिक तौर पर समाप्त कर राज्य द्वारा नियोजित विकास का दौर शुरू हुआ। नेहरू के नेतृत्व में समाजवादी नजरिये को तरजीह मिली। भारी उद्योग लगाने, आधार संरचना का विकास, विज्ञान और प्रौद्यौगिकी की संस्थाओं को बढ़ावा, कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बल दिया गया। कुल मिलाकर अविकसित देश के लिए राजमार्ग के रूप में विकास के तर्क और विमर्श ने अधिकार जमाया। हरित क्रांति भी आई और खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा, शिक्षा संस्थाओं का विस्तार हुआ और औद्योगिक विकास ने गति पकड़ी।

स्वतंत्रता मिलने के बाद दो दशकों तक राज्य और समाज के अध्येताओं के बीच विकास को लेकर सहमति बनी थी। आधुनिकीकरण और प्रगति को समाज के उज्ज्वल भविष्य के द्वार खोलने वाला स्वीकार करते हुए सतत तीव्र परिवर्तन को असंदिग्ध रूप से श्रेयस्कर ठहरा दिया गया। परंतु सत्तर के दशक के बाद विकास के साथ उसके अंतर्विरोध भी प्रकट होने लगे। सांस्कृतिक तनाव भी दिखने लगा। कृषि के क्षेत्र में छोटे किसान समाज के हाशिये पर जाने लगे।

उनकी उपेक्षा के चलते जातीय अस्मिता ने नया कलेवर धारण करना शुरू किया। जाति के आधार पर समाज का ध्रुवीकरण शुरू हुआ। गरीबी, स्वास्थ और शिक्षा को लेकर संरचनात्मक सवाल भी खड़े होने लगे। जेंडर और दलित चेतना भी आंदोलित होनी शुरू हुई। धर्म, समुदाय, भाषा और क्षेत्र की अस्मिताएं भी सिर उठाने लगीं। संशय और अविश्वास की खाई को सतही नारों से पाटने की कोशिशें हुईं पर समाज के लिए जरूरी संरचनात्मक बदलाव नहीं आ सका।


नब्बे के दशक में उदारीकरण ने अर्थनीति में नया आयाम जोड़ा। सोवियत संघ के टूटने के साथ पूंजीवाद ही राजनीति का एकल आधार बनता गया। सूचना और संचार की प्रौद्योगिकी के विस्तार और विदेशी निवेश के साथ कई ‘सुधार’ भी आने लगे। औद्योगिकीकरण, नगरीकरण और वैश्वीकरण के रिश्ते भी जटिल होने लगे। वैश्वीकरण एक नए किस्म के उपनिवेशीकरण की तरह पांव पसारने लगा और विकास अपना वादा पूरा करता नहीं दिखता।

वह गरीबी, विस्थापन, सामाजिक-आर्थिक भेद, कूड़ा उत्पादन, और प्रदूषण आदि के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। आधुनिकता की परियोजना भी वैयक्तिकता, निजीकरण और पूंजीवाद के बल पर जो आभिजात्य को ही स्थापित करती है, सफल होती नहीं दिख रही है। विकल्प के रूप में अब’ टिकाऊ विकास’ के बारे सोचा जा रहा है, जिसमें भविष्य की चिंता भी शामिल है। इसी क्रम में यह भी सोचना होगा कि उत्तर आधुनिक क्या ‘आधुनिक’ से भिन्न है या छद्म रूप में उसका ही विस्तार है?

विचारणीय यह भी होगा कि उत्तर उपनिवेशवाद और वि-उपनिवेशीकरण के तर्क हमें कहां ले जाएंगे। आज पर्यावरण के बढ़ते खतरे, अकेलेपन, मानसिक अस्वास्थ्य और बढ़ती हिंसा को देखते हुए सिर्फ मानव केंद्रित सोच अधूरी और खतरनाक लग रही है। चूंकि सांस्कृतिक रचनाशीलता में परंपरा का पुनराविष्कार भी आता है, अत: परंपरागत दृष्टि अधिक प्रासंगिक है। सबमें अपने को देखना और अपने में सबको देखना ही देखना होता है। इसी के आधार पर विविधताभरी दुनिया में साझेदारी वाला भविष्य बन सकता है।



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जेम्स बॉन्ड : अय्यार, शॉन कॉनेरी और क्रेग

इ यान फ्लेमिंग ने जेम्स बांड नामक पात्र रचकर कुछ उपन्यास लिखे। एक उपन्यास से प्रेरित पहली फिल्म का नाम था ‘डॉक्टर नो’, जिसमें शॉन कॉनेरी ने जेम्स बॉन्ड की भूमिका की थी। कुछ बॉन्ड फिल्मों में अभिनय करने के पश्चात शॉन कॉनेरी ने अपनी अभिनय कला के विकास के लिए जेम्स बांड की भूमिका अभिनीत करने से इनकार कर दिया। अन्य कलाकारों के साथ फिल्में बनती रहीं और डेनियल क्रेग ने ‘कैसिनो रॉयल’ में यह भूमिका अभिनीत की। शॉन कॉनेरी के बाद डेनियल क्रेग अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं। जेम्स बॉन्ड शृंखला की नई फिल्म का नाम है ‘नो टाइम टू डाई’। यह फिल्म इसी वर्ष प्रदर्शित होने जा रही है। भारत में हिंदी, तमिल, तेलुगु भाषाओं में फिल्म को डब किया जाएगा।

इयान फ्लेमिंग के लिखे उपन्यासों से कहीं अधिक जेम्स बॉन्ड फिल्में बन चुकी हैं। दरअसल, जेम्स बॉन्ड एक ब्रांड है, जिसे भुनाना जारी रखा जाएगा। ज्ञातव्य है कि इस पात्र का जन्म शीत युद्ध के समय हुआ था। दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात यह तय किया गया कि तीसरा विश्व युद्ध कभी न हो। इसी कारण जेम्स बॉन्ड की रचना की गई जो अकेला ही विरोधी के खेमे में जाकर उसके शस्त्र भंडार को नष्ट करता है और अपने काम के साथ शत्रु देश की महिलाओं से प्रेम भी करता है। एक जेम्स बॉन्ड फिल्म का नाम है ‘फ्रॉम रशिया विद लव’। ज्ञातव्य है कि डेनियल क्रेग भी जेम्स बॉन्ड का पात्र अभिनीत करने से मना कर चुके थे, परंतु निर्माता ने बड़ी मिन्नत करके उन्हें यह फिल्म करने के लिए राजी किया है।

जेम्स बॉन्ड फिल्मों के निर्माण के लिए अस्त्र-शस्त्र, कार, हवाई जहाज इत्यादि उपकरणों का निर्माण किया जाता है। जेम्स बॉन्ड की कार सड़क पर दौड़ने के साथ ही समुद्र सतह पर तैर भी सकती है। कार पनडुब्बी की तरह भी काम करती है। एक दृश्य में जेम्स बॉन्ड की कार समुद्र तट पर आती है और वहां मौजूद व्यक्ति चकित रह जाते हैं। जेम्स बॉन्ड एक मछली भीड़ की ओर उछाल देता है। इस तरह मारधाड़ के दृश्यों से भरी फिल्म में हास्य के लिए गुंजाइश रखी जाती है। अमेरिका का फिल्म उद्योग अपने ब्रांड के गन्ने से रस की आखिरी बूंद भी निचोड़ लेता है।

ज्ञातव्य है कि स्टीवन स्पीलबर्ग ने ‘जुरासिक पार्क’ फिल्म की शूटिंग के लिए आवश्यक वस्तुओं और जानवरों को बनाने के लिए कुछ कारखाने भी रचे थे। फिल्म के प्रदर्शन के दिन ही डायनासोर खिलौने भी बाजार में आ गए। मूल उद्योग से अधिक कमाई उप-उद्योग द्वारा प्राप्त होती है। अब बच्चे गुड्‌डे-गुड़िया से नहीं खेलते, वरन् खिलौने एके-47 की तरह बनाए जाते हैं। खिलौनों से बचपन का अध्ययन किया जा सकता है।

इयान प्लेमिंग के उपन्यास फॉर्मूला उपन्यास हैं, परंतु उनमें कुछ महत्वपूर्ण बातें भी शामिल रहती हैं, जैसे ‘डायमंड्स फॉर एवर’ उपन्यास में दक्षिण अफ्रीका के दोहन का वर्णन है। खदान से हीरे निकालने वाले मजदूर हमेशा गरीब ही बने रहते हैं। अमेरिका की गुप्त एजेंसी सीआईए कहलाती है। रूस की संस्था को केजीबी के नाम से जाना जाता है। भारत में सीबीआई के साथ ही विदेशों में जासूसी करने के लिए एक और संस्था भी है। ‘नाम शबाना’ और ‘बेबी’ नामक फिल्मों में काल्पनिक संस्था रची गई है। सलमान खान और कैटरीना कैफ अभिनीत फिल्म में सलमान भारत के लिए और कैटरीना पाकिस्तान के लिए काम करते हैं। दोनों में प्रेम हो जाता है और वे लापता हो जाते हैं। फिल्म में एक संवाद है कि कम से कम यह एक ऐसा प्रकरण है, जिसमें दोनों दुश्मन देश मिलकर काम कर रहे हैं। फिल्म एक था टाइगर में एक संवाद इस आशय का है- ‘जब प्रेम हुआ तब यह पता नहीं था कि वह दुश्मन देश के लिए काम करती है और प्रेम हो गया तो दुश्मनी कैसी’ गोयाकि प्रेम ही दुश्मनी समाप्त करता है। प्रेम को भी शस्त्र की तरह इस्तेमाल किया जाता है। राजी फिल्म में भारतीय कन्या का विवाह पाकिस्तानी से होता है और वह भारत के लिए जासूसी करती है। राजी में प्रस्तुत विवाह भी प्रायोजित है। बहरहाल, फिल्म के नाम पर गौर करने से लिए कोई समय मौजूं भी हो सकता है? जन्म के समय पंचांग देखकर व्यक्ति की कुंडली बनाई जाती है, परंतु मृत्यु का समय उसमें नहीं दिया जाता। नाड़ी विशेषज्ञ वैद्य भी मृत्यु का सूक्ष्म संकेत देते हैं। नाड़ी वैद्य पर आरोग्य निकेतन एक विलक्षण उपन्यास है। जीवन नामक वाक्य में मृत्यु कॉमा है, पूर्णविराम नहीं।

आजकल जासूसी पर वेब सीरीज रची जा रही हैं। विनोद पांडे और शिवम नायर की सीरीज का प्रदर्शन 17 मार्च से हो रहा है। ये दोनों फिल्मकार एक और जासूसी कथा वाली वेब सीरीज बनाने जा रहे हैं। गुजश्ता सदी में देवकीनंदन खत्री ने अय्यार केंद्रित चंद्रकांता, भूतनाथ इत्यादि उपन्यास लिखे थे। इन उपन्यासों की तर्कहीन बातें ही अब जेम्स बॉन्ड नुमा फिल्मों में प्रस्तुत की जा रही हैं। फिल्म यकीन दिलाने की कला है।



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James Bond: Iyer, Sean Connery and Craig


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दूसरों से पहले सोचने के अपने फायदे हैं

कई इतिहासकारों को मप्र के नरसिंहपुर जिले का गाडरवारा1901 में मराठा साम्राज्य के मुख्यालय के रूप में याद होगा, जहां केवल 6,198 लोग रहते थे। अगले 110 वर्षों में यहां की जनसंख्या बढ़कर 60,000 हो गई और इसे रजनीश (ओशो) के बचपन के घर के रूप में जाना जाने लगा। लेकिन, जब मैं इस रविवार को यहां कुछ घंटे ठहरा, तो मैंने यहां कई नई संस्कृतियां देखीं। जैसे कि जब मैं एक होटल में मीटिंग के लिए गया था, तब वहां एक घंटे में तीन जन्मदिन के केक काटे गए और कॉलेज जाने वाले युवा कोरस में जन्मदिन की शुभकामनाएं दे रहे थे। स्टेशन रोड पर सरसरी निगाह व कुछ निवासियों से बात करने पर पता चला कि कैसे वह शहर जिसका वर्णन करना मुश्किल रहा है, आधुनिक दुनिया को अपना रहा है, साथ ही उन महिलाओं को भी प्रोत्साहन दे रहा है, जिनमें उच्च आकांक्षा और प्रगति की भूख है। कुछ महिलाएं ऐसी हैं जो छोटे से एक कमरे में अपना व्यवसाय चला रही हैं, तो कुछ ऐसी हैं जिनमें खुद को साबित करने की आग है। इससे मुझे हाल ही में पढ़ी गई हैदराबाद में 37 साल पहले शुरू हुए एक बिजनेस की कहानी याद आई। यह व्यवसाय युवा बहनों ने तब शुरू किया था, जब ‘ग्रूमिंग’ और ‘स्टाइलिंग’ आम बात नहीं थी, खासतौर पर अगर कोई व्यक्ति तेलुगु फिल्मों के शोबिज या आतिथ्य उद्योग से न जुड़ा हो। उन दिनों ब्यूटीशियन बनना कठिन हुआ करता था। लेकिन आत्मविश्वास और माता-पिता के सहयोग के साथ, चार बहनों, अनुराधा चेप्याला, पोल्सानी अन्नपूर्णा और जुड़वां बहनें तक्कल्लपल्ली अनुपमा और अनिरुद्धा मिर्यला ने न केवल हैदराबाद में बल्कि, सिकंदराबाद तक में सौंदर्य व्यवसाय का चेहरा बदल दिया।

खास बात यह है उन्होंने एक गैरेज में अपना व्यवसाय शुरू किया। ये विचार उन्हें उनके पिता तिरुपति राव ने दिया था जो उस वक्त नगरपालिका आयुक्त थे। लड़कियों ने पढ़ाई पूरी करने के साथ-साथ सौंदर्य उद्योग में अपनी रुचि को भी पूरा किया। दिलचस्प बात यह है कि उनके पिता के ओहदे के बावजूद, बच्चों पर कोई पाबंदी नहीं थी और वे जो चाहें कर सकते थे। अब उनके पिता को नारीवादी कहें या दूरदर्शी, उन्होंने बच्चों और पत्नी को भी पढ़ाई करने और प्रतियोगी परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किया। जब अनुराधा और अन्नपूर्णा ने अपने तिलक नगर स्थित घर के गैरेज में ब्यूटी सैलून ‘अनूस’ शुरू किया, तो कॉलोनी में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। अधिकांश निवासी उनके परिचित थे और सामाजिक वर्जना के बावजूद अपनी बेटियों को दुल्हन के मेकअप, वैक्सिंग और फेशियल के लिए ले लाते थे। शुरुआत में उनके ग्राहक कम थे, लेकिन संख्या बढ़ती गई। फिर उनकी दो कजिन बहनें भी उनके साथ जुड़ गईं और उन्हें बड़ी जगह की जरूरत पड़ी। उन्होंने अपने घर के एक हिस्से में सैलून को विस्तार दिया। वे अपने पिता को किराया भी देती थीं। सबसे बड़ी बात यह थी कि उन्होंने अपने अंकल-आंटियों द्वारा दी गईं बुरी टिप्पणियों को अनसुना कर दिया था। उनका कहना था कि लड़कियां दूसरों के बाल नहीं काटतीं!

शादी होने के बाद चारों बहनें हैदराबाद और सिकंदराबाद के विभिन्न क्षेत्रों में चली गईं और वहां उन्होंने अपनी शाखाएं शुरू कीं। बहनों ने सौंदर्य का कौशल सिखाने वाले अंतरराष्ट्रीय कॉलेजों में दाखिला लिया और इस कला में महारत हासिल की। अब अनिरुद्धा अमेरिका में रहती हैं और उन्होंने फ्लोरिडा में ‘अनूस’ की शाखा खोली है। आज, लगभग 500 लड़कियां उनके संस्थानों में नौकरी कर रही हैं। परिवार के लिए इस ब्रांड को बनाने में कई साल लग गए और वो आज भी उसी जुनून के साथ काम कर रही हैं। अन्नपूर्णा का ही उदाहरण ले लीजिए, जो अब दादी बन चुकी हैं, इसके बावजूद अगर वो सुबह 9 बजे काम के लिए न निकलें तो उन्हें अपने पिता से डांट पड़ती है। जाहिर है बेटियां अपने 85 वर्षीय पिता, जो कि सख्त नगरपालिका आयुक्त रह चुके हैं, उनसे ही प्रेरित होती हैं।

फंडा यह है कि बाजार में हमेशा पहले शुरुआत करने का फायदा मिलता है। फिर चाहे बात गैरेज से शुरू होने वाले एक छोटे से व्यवसाय की हो या करोड़ों के निवेश के साथ शुरू हुए बड़े व्यवसाय की।



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राजनीति के अंधे चौराहे पर मध्यप्रदेश का आम आदमी

राजनीति एक चौराहा है। अंधा चौराहा। हर आम आदमी, जहां भी जाता है या जाना चाहता है, यह चौराहा उसके साथ आ जाता है। यहां से एक राह उस अंधे कुएं की तरफ़ जाती है जिसमें सरकारी सोच की लाश पड़ी है। दूसरी राह एक नदी की तरफ़ जाती है, जिसमें आम जन-जीवन का शव तैर रहा है। तीसरी राह एक विशाल गड्ढे की तरफ़ जाती है जिसमें सत्ता का मुर्दा गड़ा है और ज़िद का तांत्रिक उसे जगाने या जगाते रहने का यत्न कर रहा है।

.. और चौथी राह एक चिता की तरफ़ जाती है जिसकी आग में कई परिवारों और उनसे मिलकर बने समाज के अरमानों की लाश जल रही है। चौराहे की चारों राहों पर लाशें देख कोई आम आदमी पांचवीं राह तलाशता भी है तो दस क़दम चलने के बाद ही उसके पैरों से बहते लहू में वह राह गुम हो जाती है।

मध्यप्रदेश में यही हो रहा है। ठीक है पिछले चुनावों में जनता खुद भी कन्फ्यूज थी और उसने भी किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं दिया था। लेकिन सरकार तो किसी एक की बननी ही थी। बन गई। नई सरकार को लगभग डेढ़ साल हो गया। चुनाव के वक्त दस दिन के भीतर पूरे करने के जो वादे किए गए थे, आज तक पूरे नहीं हो सके। इसलिए सरकार रहे या जाए, मप्र के आम आदमी का ठगा जाना तय है। बहरहाल, कमलनाथ सरकार पर इतनी जल्दी ऐसा संकट आ जाएगा, किसी ने नहीं सोचा था। ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में आ चुके हैं। उन्होंने अपनी राज्यसभा सीट भी पक्की कर ली है। उधर, शिवराज सिंह चौहान अपनी सरकार के सपने देखने लगे हैं। हो सकता है वे साकार भी हो जाएं लेकिन आगे संकट आएगा- सिंधिया को भी और शिवराज को भी। यह संकट होगा सिंधिया ख़ेमे के विधायकों का राजनीतिक समायोजन। इनमें दर्जन से ज्यादा तो मंत्री ही हैं। कम से कम उन्हें तो मंत्री या मंत्री जैसी कोई ज़िम्मेदारी देनी ही होगी। फिर 22 विधायकों को अगले चुनाव में टिकट भी चाहिए ही होगा। हालांकि, कहा जा सकता है कि राजनीति में चार साल किसने देखे? तब तक तो गंगा में बहुत पानी बह जाएगा। लेकिन सिंधिया समर्थक तो सिंधिया समर्थक ही रहेंगे! एडजस्ट करना महंगा पड़ सकता है।

वैसे जब भाजपा के केंद्रीय नेताओं से बात हुई होगी, सिंधिया ने ये सब सवाल सामने रखे ही होंगे और बेशक, भाजपा नेताओं ने सभी सवालों के जवाब में हां ही कहा होगा। लेकिन, केंद्रीय और राज्य की राजनीति में फ़र्क़ होता है। कुछ भी कीजिए, यह फ़र्क़ रहता ही है। 13-14 साल के भाजपा राज में भाजपा के समर्थक भी तो बने ही होंगे। उनका क्या होगा? उन्हें भी लगेगा कि सिंधिया समर्थक किसी न किसी रूप में उनका हक़ मारने वाले हैं। परेशानी तब बढ़ेगी।

फ़िलहाल, बाड़ाबंदी जारी है। कांग्रेस के सभी विधायक जयपुर में हैं और भाजपा वाले गुड़गांव में। विधानसभा का सत्र शुरू होने वाला है। सिंधिया समर्थकों के इस्तीफ़ों पर विचार के लिए स्पीकर के पास सात दिन का वक्त है। इसके बाद ही मामले में राज्यपाल कोई हस्तक्षेप कर सकते हैं। कुल मिलाकर, मामला अभी लम्बा खिंचने वाला है। जो कुछ नया होगा, वह 18 मार्च तक ही होगा।



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सिंधिया को भाजपा की सदस्यता दिलाते हुए जेपी नड्डा।


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सेहत, व्यवहार, चरित्र वाले अमीर होते हैं

हम सभी के भीतर अमीर होने की लालसा छिपी हुई है। सबकी इच्छा होती है अमीर हो जाएं। होना भी चाहिए। तो इस इच्छा को दबाएं नहीं, बल्कि सही दिशा में मोड़ें। चलिए, पहले यह समझें कि कितने किस्म के अमीर होते हैं। बारीकी से चिंतन करें तो छह तरह के अमीर पाएंगे। एक वो जो पुश्तैनी हैं। मतलब जिनके लिए बाप-दादा छोड़कर गए। दूसरी तरह के वो होते हैं जो पहले अमीर थे, अब नहीं हैं। ऐसे लोग बावले से हो जाते हैं। अपने अभाव के किस्से सुनाते फिरते हैं या उसी अभाव में डूबकर बर्बाद हो जाते हैं। तीसरी किस्म के वो लोग जो नए-नए अमीर बने हैं। उनके शौक माथे चढ़कर बोलते हैं।

भोग-विलास इनका आवरण हो जाता है। चौथे वो होते हैं जो भविष्य में अमीर होने की तैयारी में लगे हैं। खूब मेहनत करते हैं, धन कमाने का हर तरीका अपनाते हैं। पांचवें जो अमीर होने का केवल सपना देखते हैं। उसके लिए करेंगे कुछ नहीं। एक नंबर के आलसी-निकम्मे, लेकिन धनवान बनना चाहते हैं। और छठे प्रकार के अमीर वो लोग हैं जो ऐश्वर्य-वैभव या धन-सपंत्ति से नहीं, बल्कि सेहत, संबंध, व्यवहार और चरित्र से अमीर हैं।

अब आप ही तय कीजिए कि आपको इन छह में से किस ढंग का अमीर होना है। किसी एक प्रकार से अमीर हो, यह भी जरूरी नहीं। इन छह में से कभी कोई तो कभी कोई स्थिति होगी। पर जो भी हो, छठे किस्म के अमीर होने की कोशिश जरूर कीजिए। इस प्रकार के लोग परमात्मा को भी बहुत पसंद होते हैं..।



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50 साल बाद का भारत हमारे बारे में क्या सोचेगा

प्रिय शिक्षक,
हमें 2020 में भारत में रहने वाले हमारे दादा-दादी की पीढ़ी के बारे में लिखने का काम देने के लिए धन्यवाद। यह बहुत पुराना सा लगता है। अगर हमें यह काम नहीं दिया गया होता तो हमें यह अहसास ही नहीं होता कि हमें आज हमारे चारों ओर की चीजों को कैसे महत्व देना चाहिए।

आज हम भारत को बहुत महत्व नहीं देते हैं। लगभग हर किसी के पास कार व घर है। लोगों को अच्छे अस्पताल व स्कूल उपलब्ध हैं। सड़कें अच्छी हैं और सार्वजनिक परिवहन निजी कार से भी बेहतर है। हमारी प्रति व्यक्ति आय 60 हजार डॉलर है। निश्चित ही यह हमारी औसत आय का उच्च स्तर है, जिससे अधिकतर भारतीयों को अच्छा जीवन मिल पाता है। लेकिन, क्या आप जानते हैं, 2020 में हमारी प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 2000 डॉलर थी। किसी समय, शायद हमारे माता-पिता के समय में भारत ने विकास पर ध्यान केंद्रित किया। हालांकि, हमारे दादा-दादी के समय 2020 में ऐसा नहीं हुआ।

2020 में भारत कई दशकों में सबसे कम विकास दर का सामना कर रहा था। नौकरी पाना मुश्किल था और ऑटो से लेकर रियल एस्टेट व बैंक जैसे व्यापार भी संकट में थे। जरा अंदाजा लगाओ कि तब तक हमारे दादा-दादी ने किस बात पर फोकस किया होगा? हिंदू-मुस्लिम मुद्दे पर। निश्चित ही तब भारत में हिंदू और मुस्लिम एक-दूसरे को पसंद नहीं करते थे। राजनेता इसका इस्तेमाल लाेगों को बांटने और वोट पाने के लिए करते थे। बिल्कुल, अब यह सब पूरी तरह अवैध है। हकीकत में आज के भारत में हम सामाजिक रूप से उन लोगों को बहुत ही बुरी नजर से देखते हैं, जो बांटने वाली बात करते हैं। हमारे पास कानून हैं, जो भगवान और राष्ट्रवाद के नाम पर हिंसा नहीं होने देते। 2020 में तो यह सबके लिए आम था। हमारे दादा-दादी कम आय, खराब सड़कों और बुरी स्वास्थ्य सेवाओं की परवाह नहीं करते थे। मेरा मतलब है कि उनकी प्राथमिकता में यह बहुत नीचे था। जब वोट देने की बारी आती थी तो यह कोई मुद्दा नहीं होता था। सोचिए कि यह कितना मूर्खतापूर्ण रहा होगा?

2020 में दो प्रमुख राजनीतिक दल थे। उनमें से एक भाजपा मजबूत थी और उसके पास बड़ा बहुमत भी था। वे लगातार जीत रहे थे, इससे साफ था कि लोग उन्हें चाहते थे। जब वे धर्म व राष्ट्रवाद की बात करते थे तो लोग पसंद करते थे। असल में उन्हांेने जब भी आर्थिक सुधारों की कोशिश की, लोगों ने इसे पसंद नहीं किया। उन्होंने इसे सूट-बूट की सरकार कहा। सूट-बूट की सरकार में गलत क्या है? क्या वे नहीं चाहते थे कि सभी भारतीयों के पास सूट-बूट हों, जैसे कि आज हमारे पास है। दूसरी पार्टी कांग्रेस ने लगातार दो चुनावों में हार का सामना किया। हालांकि, इसके बावजूद वह जरा नहीं बदली। देश के पहले प्रधानमंत्री की बेटी के बेटे का बेटा उनका प्रधानमंत्री पद का दावेदार था। इसलिए उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लोग क्या चाहते हैं।

2020 में पूरी दुनिया कोरोना वायरस से डरी हुई थी। इसका चीन पर सबसे अधिक असर हुआ। इससे पूरी दुनिया में मंदी आ गई और इसका भारत पर भी असर पड़ा। इस वायरस के बाद दुनिया निर्माण के क्षेत्र में चीन से अपनी निर्भरता को कम करना चाहती थी, भारत इस अवसर को ले सकता था। लोगों ने उस समय अर्थव्यवस्था की बहुत कम चिंता की। लोग पूरे दिन हिंदू-मुस्लिम की बात करना चाहते थे। जैसे कि कौन अच्छा था और कौन बुरा। हालांकि, दोनों में ही अच्छे लोग भी थे और बुरे भी, लेकिन उन्होंने इसे कभी नहीं समझा। वे इतिहास से यह साबित करना चाहते थे कि मुस्लिम बुरे हैं या हिंदू बुरे हैं। यही प्राइम टाइम की बहस होती थी। हमारे दादा-दादी अपने भूतकाल से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। कई बार सड़कों पर दंगे होते थे और लोग मारे जाते थे। वे गरीब लोग होते थे और हमारे देश में तब बहुत थे, इसलिए मायने नहीं रखते थे। बाद में तेल की कीमतें गिर गईं, वायरस और फैल गया और भारतीय व्यापार को भारी क्षति पहुंच गई।

जो कोई भी कहता था कि हमें अर्थव्यवस्था पर फोकस करना चाहिए, उसे उबाऊ कहा जाता था और कम महत्व दिया जाता था। दुर्भाग्य से जीडीपी का कोई धर्म नहीं था। कुछ लोगों ने स्वास्थ्य, विकास दर, रोजगार और शिक्षा जैसे वास्तविक मुद्दों पर बात करने की कोशिश की। हालांकि, वे संख्या में बहुत कम थे। वे एक सोशल मीडिया एप ट्विटर का इस्तेमाल करते थे, जो आज मौजूद भी नहीं है। इन लोगों को इसलिए नजरअंदाज कर दिया गया, क्योंकि ट्विटर पर लोग दिनभर हिंदू-मुस्लिम मसलों पर चर्चा करते थे।

ईश्वर का शुक्र है कि किसी समय भारतीय जाग गए। उन्हें अहसास हो गया कि यह सब मूर्खता है और कुछ भी अच्छा नहीं करेगा। उन्हांेने बदलने का फैसला किया। उन्होंने कानून बनाए और ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार करना शुरू किया जो ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें करते थे, जिनका भारत की प्रगति और संपन्नता से कोई सरोकार नहीं था। उन्होंने सिर्फ विकास का फैसला किया। हिंदू और मुसलमान दोनों ने ही अपने बच्चों को शिक्षित करने, उन्हें व्यापार, नेटवर्किंग सिखाने के साथ ही उनकी कम्युनिकेशन क्षमताओं को बढ़ाया। मतदाताओं ने नेताओं को सिर्फ प्रदर्शन के आधार पर आंका। उन्होंने कहा कि अगले दो दशकों में हमें सिर्फ विकास करना है। अाज भारत अमीर और कीर्तिवान है। हम अमीर हैं, इसलिए हमें सौम्य माना जाता है। अब होली और दीपावली दुनियाभर में प्रसिद्ध है, क्योंकि भारत जैसा अमीर देश इन्हें मनाता है। यह वैसा ही है, जैसा 2020 में थैक्सगिविंग और हैलोवीन जैसे अमेरिकी त्योहार प्रसिद्ध थे। इससे हिंदू संस्कृति का विकास 2020 की तुलना में बेहतर हुआ है। मैं सोचता हूं कि हमारी पीढ़ी का क्या होता अगर भारत बदला न होता। वास्तव में हम बहुत भाग्यशाली हैं कि हम आज 2070 में रह रहे हैं, न कि 2020 के भारत में। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)



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प्रतीकात्मक फोटो।


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